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जैन-विभूतियाँ
उनके सजीव सम्पादन ने 'जैन गजट'' के ग्राहकों की संख्या 300 से बढ़ाकर 1500 कर दी। उनकी सम्पादन प्रतिभा से प्रभावित पं. नाथूराम प्रेमी ने अक्टूबर 1919 में उन्हें "जैनहितैषी' के सम्पादन का दायित्व सौंपा जिसे उन्होंने सन् 1921 तक निभाया। "जैनहितैषी' के बन्द हो जाने पर प्राचीन जैन साहित्य सम्बंधी शोध-खोजपूर्ण लेखों के प्रकाशन में आये गतिरोध को दूर करने के लिए उन्होंने अपने 'समन्तभद्राश्रम' से, जिसकी स्थापना उन्होंने दिल्ली में 21 अप्रेल, 1929 को की थी, नवम्बर 1929 से एक मासिक पत्र 'अनेकान्त' निकालना प्रारम्भ किया।
नवम्बर 1930 में प्रथम वर्ष की 12वीं किरण निकलने के उपरान्त आर्थिक एवं अन्य कारणों से इस पत्र का प्रकाशन 8 वर्ष तक बाधित रहा और वर्ष 2 की किरण 1 उनके सम्पादकत्व में वीरसेवा मंदिर, सरसावा से 1 नवम्बर, 1938 को प्रकाश में आ पाई। यह पत्रिका अभी जीवित है, नई दिल्ली से प्रकाशित त्रैमासिक के रूप में।
सन् 1914 में मुख्तारी छोड़ने के उपरान्त संस्कृत के विभिन्न सुभाषित ग्रन्थों से अपने मनोनुकूल सुभाषितों का चयन कर उन्होंने उनका सरल हिन्दी पद्य में भावानुवाद या छायानुवाद किया। उन पद्यों को इस प्रकार अनुस्यूत किया कि वह 'मेरी भावना' नामक सुमनावलि बन गई। यह उनकी जीवन-साधना का मैनीफेस्टो (घोषणा-पत्र) थी। सर्वप्रथम 'जैन हितैषी' पत्रिका के अप्रेल-मई 1916 के संयुक्तांक में इसका प्रकाशन हुआ और यह एक कालजयी रचना सिद्ध हुई। इसमें उनका कवि उपनाम 'युगवीर' देखने को मिलता है। यह कृति इतनी लोकप्रिय हुई कि पुस्तिका रूप में इसकी 20 लाख प्रतियाँ हिन्दी में छपने और इसका अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, गुजराती, मराठी और कन्नड़ भाषाओं में अनुवाद होने का उल्लेख कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ने 'अनेकान्त' (जनवरी 1944) में किया था। बंगला भाषा में भी इसक अनुवाद हुआ। आज भी सहस्त्रों व्यक्तियों को मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत यह रचना कंठस्थ है और वे इसका नित्यपाठ करते हैं।