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जैन-विभूतियाँ
161 की श्यामसुखाजी ने अपनी सहज लेखन शैली द्वारा बंगला पाठकों को एक स्पष्ट धारणा प्रदान की है। परिभाषा संकुल विषय को भी बोधगम्य बना देने की अपूर्व कला आपके लेखन का वैशिष्ट्य है।
आपका तीसरा ग्रन्थ 'जैन धर्मेर परिचय' साधु, साध्वी, श्रावक के आचार, नव तत्त्व, आदि की विस्तृत पर्यालोचना है। .. 'जैन तीर्थंकर महावीर' चौथा ग्रन्थ है, जिसमें महावीर के जन्म, प्रव्रज्या एवं तीर्थकर जीवन का संक्षिप्त विवरण, महावीर वाणी और अनेक प्रमुख गणधरों का परिचय सन्निविष्ट हैं। इससे पूर्व महावीर का प्रामाणिक जीवन चरित्र बंगला भाषा में था ही नहीं, अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध नहीं था। इस दृष्टि से श्यमामसुखा जी का यह ग्रन्थ एक उल्लेखनीय अवदान है।
3719 JT 3Tuut Tre Lord Mahavira - His life and Doctrine उक्त बंगला ग्रन्थ का ही अनुवाद है। इसमें धर्मतत्त्व की भी चर्चा है।
जैन धर्म और दर्शन का अवलम्बन लेकर समस्त कथा, प्रबन्ध आगम-सम्पाद करते हुए भी आप साम्प्रदायिकता से विमुक्त रहे हैं। भिन्न मतावलम्बी के प्रति आप कभी असहिष्णु नहीं हुए। जहाँ कहीं भी इन्होंने तत्त्व की तुलनात्मक आलोचना की वहाँ विश्लेषण युक्ति संगत ही है।
श्यामसुखाजी ने प्रधानत: धर्म तत्त्व की ही चर्चा की है किन्तु कहीं भी वे निरस नहीं हुए हैं। यही कारण है कि आपकी रचनाएँ गूढ़ तत्त्वगर्भित होते हुए भी इतनी रोचक है कि पढ़ना प्रारम्भ करने के पश्चात् अन्त कर ही उठने की इच्छा होती है। इनका शब्द-विन्यास भी जितना सुचिन्तित है, उतना ही सुललित भी।
श्यामसुखाजी ने बंगला में लिखा अत: जैनियों के साथ बंगला भाषा भाषी भी उनके चिरऋणी रहेंगे। एक ओर वे बंगला में लिखकर उस भाषा को समृद्ध करते हैं, दूसरी ओर बंगदेशीय विद्वानों में फैली जैन धर्म सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं को दूर करने में भी मददगार होते हैं। डॉ.