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जैन-विभूतियाँ में आप अस्वस्थ रहने लग गये थे। सन् 1967 की 16 अप्रेल को 85 वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास हो गया।
श्री श्यामसुखा जी मूलत: बंगला भाषा के लेखक थे। वे निरन्तर बंगाल में ही रहे अत: उन्होंने बंगला में अधिक लिखा। हिन्दी और अंग्रेजी में उनके जो लेख मिलते हैं, वे प्राय: बंगला से ही अनुदित हैं। ग्रन्थाकार रूप में प्रकाशित उनकी कृतियों के अतिरिक्त जो फुटकर लेख इधर-उधर बिखरे पड़े थे उन्हें एकत्रित कर उनकी 80वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित अभिनन्दन-ग्रंथ में सन्निविष्ट किया गया था। इन रचनाओं से पता चलता है कि आपका रचना क्षेत्र कितना विस्तृत था और प्रकाशन का माध्यम कितना व्यापक।
इन लेखों में कुछ उपदेशात्मक एवं कुछ साधक साधिका एवं तीर्थकरों के जीवन पर आधारित हैं। 'जैन शास्त्र में जड़ और जीव' लेख में दार्शनिक तत्त्व का विशलेषण है। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में प्राचीन जैन इतिहास का। इनके 'प्राचीन भारत' लेख में इस युग की राजनीति का परिचय है। 'भगवान पार्श्वनाथ' और 'भगवान महावीर' जीवनवृत्त हैं। 'जैन उपासना में ध्यान' और 'श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों की उत्पत्ति' सम्बन्धी लेख बहुत ही विचारोत्तेजक हैं। 'जैन साहित्य में प्रेत तत्त्व' भी आपकी एक सुन्दर रचना है।
___'उत्तराध्ययन सूत्र' नामक बंगला ग्रंथ कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित किया गया है। इसका सम्पादन श्यामसुखाजी और अजित रंजन भट्टाचार्य ने किया है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' जैन आगमों में प्राचीनतम ग्रंथ है। इसका बंगला अनुवाद और सम्पादन कर श्यामसुखा जी ने अपने विलक्षण भाषा ज्ञान और अध्यवसाय का परिचय दिया है। अनुवाद जितना ही प्रांजल है, उतना ही मूलगत। पाद टिप्पणियों में ऐसे तत्त्वों का समावेश है, जिनसे उनकी दीर्घकालीन साहित्य साधना, गम्भीर अर्न्तदृष्टि और चिन्तन मनन का परिचय मिलता है।
आपकी द्वितीय कृति 'जैन दर्शनेर रूप रेखा' ग्रन्थ में द्रव्य, न्याय, स्याद्वाद, अनेकान्त, कर्म एवं गुणस्थान के विषय में समस्त गूढ तत्त्वों