________________
147
जैन-विभूतियाँ स्कूल में हुआ। प्राईमरी शिक्षा पूरी कर लेने पर पिता ने उन्हें पैतृक व्यवसाय में लगाना चाहा। हीरालाल के मन में आगे पढ़ने की तीव्र लालसा थी। उन्हें पाँच मील दूर गाडरवाड़ा के मिडिल स्कूल में भरती कर दिया गया। वहाँ से हाई स्कूल की शिक्षा के लिए उन्हें नरसिंहपुर आना पड़ा। हाई स्कूल पास करने के बाद उन्होंने जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज में दाखिला लिया। मात्र 14-15 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह सोना बाई के साथ हुआ। सन् 1920 में उन्होंने बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत में सर्वश्रेष्ठ अंक पाने पर उन्हें राजकीय छात्रवृत्ति मिली। तदुपरांत सन् 1912 में एम.ए. एवं एल.एल.बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। एम.ए. परीक्षा में संस्कृत में सर्वश्रेष्ठ रहे। सरकार की तरफ से उन्हें अनुसंधान छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। आगामी तीन वर्ष उन्होंने जैन साहित्य एवं इतिहास का विशेष अध्ययन करने में बिताए।
इस बीच 'करंजा' जैन तीर्थ के शास्त्र भंडार का अवलोकन कर वहाँ उपलब्ध ग्रंथों को क्रम से अंकित कर सूचि बना डाली। सूचि बनाते समय उनका ध्यान प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के अश्रुत ग्रंथों की ओर गया। इन ग्रंथों को प्रकाशन में लाने की उत्कट लालसा जागृत हुई। तभी इन्दौर के न्यायाधिपति श्री जुगमंदरदास जैनी ने बुला भेजा। वे 'गोम्मटसार' का अंग्रेजी अनुवाद कर रहे थे। इस हेतु उन्हें एक 'प्राकृत' भाषा के अधिकारी विद्वान् की आवश्यकता थी। इन्दौर में सर सेठ हुकमचन्द से भी उनका परिचय हुआ। सर सेठ उनकी विद्वता एवं शिष्टाचार से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने पुत्र राजकुमार का निजी शिक्षक बनाना चाहा एवं यावज्जीवन पाँच रुपए महावार देने का प्रस्ताव रखा। हीरालालजी को प्रस्ताव रुचा नहीं। तभी उन्हें अमरावती में स्थित 'किंग एडवर्ड कॉलेज' (विदर्भ महाविद्यालय) में एसिस्टेंट प्रोफेसर के पद का नियुक्ति-पत्र मिला। हीरालालजी ने सन् 1924 में यह पद भार ग्रहण किया।
हीरालालजी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। लम्बे कद, गौर वर्ण, पानीदार आँखें और चेहरे पर सदाबहार मुस्कराहट। विलक्षण प्रतिभा एवं शालीन मृदु व्यवहार के कारण वे प्राध्यापकों एवं छात्रों में प्रिय हो गए।