________________
जैन- विभूतियाँ
अमरावती शहर में जैनियों की संख्या कम नहीं थी । पाँच जैन मंदिर थे । प्रो. हीरालाल दर्शनार्थ मंदिरों में जाते, जैन समारोहों में जाते, वहाँ व्याख्यान देते। जल्द ही वे लोकप्रिय भी हो गये। सभी श्रोता उनकी ज्ञान महिमा से अभिभूत हो उनका स्वागत समादर करते। जैन समाज के मुखिया सिंधई पन्नालालजी की जैन शास्त्रों में रुचि थी। उन्होंने 'षट्खंडागम' की एक अलभ्य हस्तलिखित प्रति दस हजार रुपए न्यौछावर कर प्राप्त की थी । हीरालालजी युनिवर्सिटी कार्यकलापों के बीच अनुसंधानात्मक लेखन के लिए समय निकाल ही लेते थे। वे ओरियन्टल कॉन्फ्रेंस के आजीवन सदस्य थे। उनके खोजपूर्ण लेख, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। उन्हें युनिवर्सिटी द्वारा डी. लिट. की उपाधि से अलंकृत किया गया। सन् 1944 में वे कॉन्फ्रेंस की प्राकृत जैनधर्म संकाय के अध्यक्ष चुने गए। सन् 1966 में वे फिर संकाय के अध्यक्ष चुने गए।
I
-
148
हीरालालजी गर्मी की छुट्टियों में बराबर " कारंजा' तीर्थ दर्शनार्थ जाते रहते थे। वहाँ के शास्त्र भंडारों के ग्रंथों की सूचियाँ तैयार की थी। सन् 1923 में मध्यप्रदेश सरकार ने "संस्कृत एंड प्राकृत मैनुस्क्रिप्ट्स इन सी.पी.ए. बरार" नामक वृहद् ग्रंथ सूचि का प्रकाशन किया। इस खोज से भारत ही नहीं यूरोप और अमरीका के विद्वानों का ध्यान अपभ्रंश व प्राकृत भाषा के प्राचीन साहित्य की ओर आकर्षित हुआ । हीरालालजी ने ब्रह्माचारी शीतलप्रसाद द्वारा संग्रहित विभिन्न प्रांतों के "प्राचीन जैन स्मारक' ग्रंथ का सम्पादन किया। पं. नाथूराम प्रेमी की प्रेरणा से जैन धर्म से संबंधित अन्यान्य प्रस्तर एवं मूर्ति लेखों के "जैन शिलालेख संग्रह " का संलेखन एवं सम्पादन किया । इसी वर्ष "सावयधम्म दोहा" नामक हस्तलिखित ग्रंथ का सम्पादन, प्रकाशन किया, जिसमें डॉ. ए. एन. उपाध्ये का सहयोग रहा। यह जैन श्रावकों के धर्म एवं आचार से सम्बन्धित देवसेन द्वारा संवत् 990 में रचित प्राचीन ग्रंथ है। सन् 1933 में प्रो. हीरालाल ने ब्राह्मण कुलोत्पन्न प्रसिद्ध जैन विद्वान् पुष्पदंत (राष्ट्रकूट राजा कृष्णलाल तृतीय के आश्रय में) द्वारा रचित "णयकुमार चरिउ" नामक प्रसिद्ध ग्रंथ का सम्पादन किया।