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जैन- विभूतियाँ
परीक्षा पास की। काशी में अध्ययनरत रहते हुए 'श्री यशो विजय जैन सीरीज' का सम्पादन किया। उनका यह अध्यवसाय पुरस्कृत भी हुआ, अनेक स्कॉलरशिप मिले। प्राकृत एवं अर्धमागधी भाषाओं के अध्ययन में आपकी विशेष रुचि थी। श्रीलंका जाकर आपने पाली भाषा में भी महारत हासिल की एवं बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया ।
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इन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव आप पर पड़ा। सन् 1915 में गाँधीजी के आह्वान पर उन्होंने स्वदेशी कपड़ा पहनने का संकल्प किया। प्राचीन जैन साहित्य का अध्ययन, मनन कर उन्हें लगा कि इन संस्कृत/ प्राकृत ग्रंथों को सर्वजन हिताय सुगम बना देने की आवश्यकता है। सन् 1914 में वे अहमदाबाद के सेठ पूंजा भाई हीराचन्द द्वारा स्थापित "जिनागम प्रकाशन सभा' से जुड़े। परन्तु धर्मांध परम्परावादी जैन आचार्यों ने उनके इन प्रकाशनों का विरोध किया। सन् 1919 में बम्बई नगर में "जैन शास्त्रों के भ्रष्ट रूपान्तरों का समाज पर नुक्शान कारक प्रभाव" विषय पर हुए आपके व्याख्यानों ने जैन समाज में हलचल मचा दी । धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड के भंडाफोड़ से महन्त व आचार्य बौखला गए एवं आपको समाज बहिष्कृत कर दिया गया। पंडितजी थे कि डटे रहे, हार न मानी। उन्हें खतरनाक परम्पराघाती एवं नास्तिक के नाम से गालियाँ दी गईं। परन्तु वे जैन युवकों एवं विचारकों के चहेते बन गए। बहुतों ने उन व्याख्यानों से प्रेरणा ग्रहण की।
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सन् 1921 में आपने गुजरात विद्यापीठ में अध्यापन शुरु किया । वहाँ काका कालेकर, जे. बी. कृपलानी, किशोरीलाल मशरूवाला एवं मुनि जिन विजयजी के सान्निध्य ने आपको क्रांति द्रष्टा बना दिया। उन्हीं दिनों प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी के साथ मिलाकर आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर के अभूतपूर्व प्राकृत ग्रंथ 'सन्मति तर्क' का सम्पादन किया। तभी गाँधीजी का प्रसिद्ध ‘डांडी सत्याग्रह' शुरु हुआ । गाँधी जी के आग्रह पर 'नव जीवन' पत्र के सम्पादन का भार आपने सम्भाला, गिरफ्तार हुए एवं नौ महीने तक जेल में बंद रहे । वहाँ से छूटकर करीब 4-5 वर्ष आपने बड़े आर्थिक संकट में गुजारे। सन् 1938 में वे अहमदाबाद के एस.एल.डी.