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जैन-विभूतियाँ झुकना पड़ा। जेल में ही जिन-बिम्ब की प्रतिष्ठा हुई, तब उनका उपवास समाप्त हुआ। समग्र भारत में उन्हें ''भारत का जिन्दा मेक्स्वनी' कहकर उनका अभिनन्दन किया गया। भारत के प्रमुख समाचार पत्रों ने उनकी जेल से रिहाई के लिए प्रबल आन्दोलन किया। सन् 1917 के काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया। छ: वर्षों के बंदी जीवनके बाद सन् 1920 में वे रिहा किये गये। पूना स्टेशन पर लोकमान्य तिलक ने उनके लिए आयोजित अभूतपूर्व स्वागतसमारोह में उनका अभिनन्दन करते हुए कहा- ''ऐसे महान् त्यागी, देशभक्त एवं कठोर तपस्वी का स्वागत करते हुए महाराष्ट्र अपने को धन्य समझता है।"
सन् 1920 में गाँधीजी जब नागपुर गए तो महाराष्ट्रियन नेता नहीं चाहते थे कि उनका जुलूस निकाला जाए। घोर विरोध के बावजूद सेठीजी के समझाने-बुझाने पर जुलूस निकल सका। वे गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन की धुरी बन गए। उन्हें फिर कैद कर लिया गया। सन् 1922 में मुक्त हुए। सन् 1923 में हुए साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए आप गली कूचों में घूमते रहे, तभी किसी मुस्लिम गुण्डे ने उन्हें घायल कर दिया। इसी वर्ष उनके इकलौते पुत्र प्रकाश की मृत्यु हो गई। सेठीजी उस समय बम्बई की एक सभा में भाषण कर रहे थे। बेटे की मृत्यु का तार उन्हें दिया गया तो पढ़कर जेब में रख लिया और भाषण जारी रखा। लोगों ने सुना तो सर धुन लिया।
इस बीच राष्ट्रीय आन्दोलन की सूत्रधार बनी काँग्रेस में फिरका परस्ती का आलम गहराने लगा था। सेठीजी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। बड़े-बड़े नेताओं की तरह न तो उन्हें जोड़-तोड़ करना आता था, न वे चमचागिरी जानते थे। वे सर्वथा अलग-थलग पड़ गए। नेताओं के राजनैतिक दाँव-पेच एवं घात-प्रतिघात से वे क्षत-विक्षत हो चुके थे। थे तो वे राजस्थान प्रांतीय काँग्रेस के अध्यक्ष पर काँग्रेस हाईकमांड के अंधभक्त नहीं थे। अत: हाईकमांड भी यही चाहता था कि काँग्रेस की बागडोर उनके हाथों में न रहे। सन् 1925 के कानपुर अधिवेशन के