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जैन-विभूतियाँ
139 का शोषण देखकर दो ही वर्ष में सेठीजी ने कामदारी से त्याग-पत्र देकर खुले आकाश में स्वच्छंद साँस ली।
सेठीजी अंग्रेजी फारसी, संस्कृत, उर्दू अरबी. हिन्दी एवं पाली भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। जैन दर्शन एवं गीता के अधिकारी विद्वान एवं व्याख्याता थे। कुरान के ऐसे जानकर थे कि मुसलमान भी आयतों का अर्थ पूछने आते। बाल्यावस्था से ही वे सभाओं में व्याख्यान देने एवं नाटकों में अभिनय करने में पारंगत हो गए थे। मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में एक पाठशाला खोली, 'जैन प्रदीप' पत्र (हस्तलिखित) निकाला और 'विद्या प्रचारिणी' सभा स्थापित की। तभी से आपके लेख 'जैन गजट' में छपने लगे थे। कामदार होते हुए भी सेठीजी ने सात आदमियों की एक गुप्त समिति बनाई। समिति के सदस्यों को भारत माँ और जैन समाज की सेवा में प्राण तक न्यौछावर करने का व्रत लेना पड़ता था। सन् 1904 में वे रावलपिण्डी के जैन समाज के निमंत्रण पर वहाँ गए और पहले पहल अंग्रेजी में व्याख्यान दिया। सन् 1905 में वे एक डेपूटेशन लेकर समूचे मध्य प्रांत में घूमे और महासभा के लिए फण्ड इकट्ठा किया। सामाजिक सुधारों के लिए अलख जगाई। वे भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस की विप्लवी संस्था की राजपूताना शाखा के सूत्रधार थे।
सेठीजी के व्यक्तित्व में बड़ा आकर्षण था। छ: फीट लम्बा कद, चौड़ा सीना, गेहुँआ रंग, सूतवाँ नाक, चमकीली आँखें। उस पर खादी का कुरता, सर पर गाँधी टोपी।
सन् 1907 में उन्होंने जैन वर्द्धमान विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय ने धार्मिक संस्कारों से ओत-पप्रेत निस्पृही देशभक्त स्नातक पैदा किए। सन् 1914 में ही अंग्रेजी सरकार को इससे अमंगल की आशंका होने लगी इसलिए उन्हें जेल में डाल दिया। लोकमान्य तिलक, ऐनीबीसेंट आदि प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं ने भरसक प्रयत्न किए पर सरकार टस से मस न हुई। जेलं में जिन आराधना की छूट न होने से उन्होंने भोजन त्याग दिया एवं सात रोज तक निराहार रहे। अंत में सरकार को