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________________ जैन-विभूतियाँ 133 आदि सभी कार्यों में वे पारंगत थे। इसके साथ बचपन की रमत व खेलों में उन्हें सहज रस मिलता था। गेंद-दड़ो, भ्रमरदड़ो, नव कांकरी, कबड्डी एवं दौड़-कूद आदि ग्रामीण खेलों में रुचि लेते थे। घुड़सवारी एवं तैराकी का भी शौक था। बचपन से वे दैनन्दिन धार्मिक क्रियाओं का पालन करते। मात्र 15 वर्ष की अवस्था में बालक का विवाह सम्बंध तय हो गया। परन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था। सन् 1896 में उन्हें भयंकर चेचक निकली, जिसमें दुर्भाग्य से दोनों आँखें जाती रही। अब तो विवाह का प्रश्न ही नहीं रहा, न दूकान पर बैठ सकते थे। यही स्थिति उनके लिए वरदान बन गई। सन् 1898 में दीपचन्दजी महाराज से सम्पर्क हुआ। जैन शास्त्रों के अध्ययन एवं स्तवनों के परायण में उनका मन रमने लगा। संस्कृत भाषा के माधुर्य से वे आकर्षित हुए। संस्कृत का विशाल साहित्य भंडार और जैन आगम की संस्कृत टीकाएँ उनकी साहित्य साधना का सोपान बनी। सन् 1902 में आचार्य विजय धर्म सूरिजी ने काशी मे 'यशो विजय जैन पाठशाला'' की स्थापना की। पंडितजी काशी चले गये एवं पाठशाला में दाखिला ले लिया। वहाँ उन्हें जैन विद्वानों एवं साधुओं का साहचर्य मिला। पाँच वर्षों के सतत अध्यवसाय से आप न्याय, व्याकरण, काव्य अलंकार आदि विविध विद्याओं में निष्णात हो गये। सन् 1906 में पंडितजी ने सम्मेद शिखर तीर्थ की यात्रा की। सन् 1916 में महात्मा गाँधी के साथ साबरमती आश्रम में रहे। इस बीच निरंतर साहित्य साधना चलती रही। शुरु में आपका ध्यान अवधान विद्या एवं मंत्र-तंत्र सिद्धि की ओर गया परन्तु जल्दी ही उससे विमुख हो गए एवं अन्तप्रज्ञा की ओर झुके। दृढ़ संकल्प शक्ति ने गहन अंधकार को ज्योतिर्मय कर दिया। आपने ज्ञान की खोज में मिथिला और आगरा जाकर संस्कृत और प्राकृत का गहन अध्ययन किया एवं 'न्यायाचार्य' की उपाधि अर्जित की। तभी पं. बालकृष्ण मिश्र बनारस ओरिएंटल कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए एवं पंडितजी वहाँ भारतीय वांगमय एवं जैनदर्शन के आचार्य बने। तदुपरांत गाँधीजी के आह्वान पर आपने गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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