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जैन-विभूतियाँ
देवेन्द्र मुनि की विद्वता कीर्ति, उनकी व्यावहारिक कुशलता, संगठन दक्षता तथा लोक नायकत्व की योग्यता को देखकर सन् 1987 में पूना के साधु सम्मेलन में आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि ने आपको श्रमण संघ के उपाचार्य के रूप में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सन् 1992 की 28 मार्च के दिन आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी का स्वर्गवास हो जाने पर समस्त श्रमण संघ के पदाधिकारियों ने आचार्यश्री की घोषणा अनुसार आपको श्रमण संघ का आचार्य घोषित किया तथा सन् 1993 की 28 मार्च के दिन उदयपुर में आपको विधिवत् आचार्य पद की चादर ओढ़ाकर जैन स्थानकवासी श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री के रूप में अभिषिक्त किया गया ।
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3 अप्रैल को साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय पुष्कर मुनि का स्वर्गवास हो गया। इसके पश्चात् आपने उत्तर भारत, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के संघों की अत्यधिक आग्रह भरी प्रार्थना स्वीकार कर उत्तरभारत की धर्म यात्रा प्रारम्भ की। राजस्थान से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर होकर आपने भारत की राजधानी दिल्ली में तीसरा चातुर्मास किया।
तीन वर्षीय उत्तर भारत की सफल यात्रा कर आचार्यश्री पुनः अपनी जन्मभूमि उदयपुर पधारे । उदयपुर का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर इन्दौर वर्षावास बिताया। उसके पश्चात् आपने महाराष्ट्र की आग्रह भरी विनती को ध्यान में रखकर महाराष्ट्र की तरफ विहार किया । परन्तु बीच में ही अचानक स्वास्थ्य की गड़बड़ी हो जाने से आप चिकित्सीय परीक्षण व उपचार हेतु मुम्बई पधारे। मुम्बई में स्वास्थ्य परीक्षण कराकर आप औरंगाबाद चातुर्मास के लिए प्रस्थान कर घाटकोपर पधारे। वहाँ पर अचानक ही शारीरिक स्थिति बिगड़ जाने से 26 अप्रैल को संथारे के साथ अकस्मात् आपका स्वर्गवास हो गया ।
आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी का जीवन सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु समर्पित जीवन था। आपने अपने जीवन काल में लगभग 70 हजार किलोमीटर की पदयात्रा की लगभग 50 हजार से अधिक
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