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जैन-विभूतियाँ _ वि.सं. 1991 में आचार्यश्री जवाहरलालजी महाराज जो युगप्रभावक महान आचार्य थे, उस समय उदयपुर के पंचायती नोहरे में विराजमान थे। बालक धन्नालाल भी पारिवारिक संस्कारों व पूर्वजन्म की धर्म सुलभबोधिता के कारण आचार्यश्री के दर्शन हेतु जाता रहता था। एक दिन प्रात:काल प्रार्थना के समय जब आचार्यश्री ध्यान पूर्ण कर श्रावकों को मंगल पाठ फरमा रहे थे-व्याख्यान स्थान पर रखे पाट पर बालक धन्नालाल जाकर लेट गया। लोगों ने आश्चर्य के साथ उसे झकझोरा, उठाया। लोग उठकर ज्यों ही मुड़े कि बालक फिर पाट पर लेट गया। पुन: लोग उठाने लगे तब तक आचार्यश्री दिव्य दृष्टि ने बालक की बालक्रीड़ा को निहारकर भावी के संकेतों को ग्रहण कर लिया और तुरन्त कहा- ''बालक को मत उठाओ।' फिर सामने बैठे श्रावकों से प्रश्न किया-यह बालक किसका है? तभी सेठ कन्हैयालाल जी बरड़िया खड़े हुए- ''गुरुदेव! यह मेरा ही पौत्र है।'' . आचार्यश्री मुस्कराये और फरमाया-"आपके खानदान में भविष्य में कोई दीक्षा लेवे तब आप इन्कार मत करना। आचार्यश्री श्रीलालजी महाराज ने जो शुभ लक्षण बताये हैं, इस बालक में वे मिल रहे हैं, यह एक दिन परम प्रतापी आचार्य बनेगा।''
शिशु, सती और संत का वचन कभी असत्य नहीं होता। वही बालक एक दिन श्रमणसंघ का आचार्यसम्राट् बना। आचार्यश्री की भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई। बालक धन्नालाल बचपन से ही अत्यन्त प्रतिभाशाली, चतुर, बुद्धिमान किन्तु सरल हृदय, पापभीरू, साहसी और दृढ़संकल्पी था। उसके व्यवहार से अन्तर में रमी साधुता के लक्षण प्रगट हो रहे थे। बालक धन्नालाल जब 6 वर्ष का हुआ तब महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज तथा श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के कमोल ग्राम में दर्शन किये और प्रथम दर्शन में ही वह उनके चरणों में समर्पित हो गया। उनके पास दीक्षा लेकर उनका शिष्य बनने का संकल्प जग उठा। यह संकल्प साकार हुआ 9 वर्ष की अवस्था में। वि.सं. 1997, फाल्गुन शुक्ला 3 के दिन बालक धन्नालाल ने खण्डप