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जैन-विभूतियाँ साथ ही भारतीय आध्यात्म-आकाश के अनेक नक्षत्रों-आदि शंकराचार्य, गोरख, कबीर, नानक, मलूक, रैदास, दरिया, मीरा आदि संतों के माध्यम से विभिन्न साधना परम्पराओं-योग, तंत्र, ताओ, झेन, सूफी पद्धतियों के गूढ रहस्यों को उन्होंने प्रकाशित किया। ध्यान और साधना की ऐसी अनूठी विधियाँ उन्होंने ज्ञापित की जो मनुष्य की चेतना के ऊर्ध्वगमन में सहायक हो सकती हैं। उन्होंने समाज, राजनीति, काम, विज्ञान, दर्शन, शिक्षा, पर्यावरण, सेक्स, एड्स आदि विषयों को अपनी क्रांतिकारी जीवन दृष्टि से प्रतिभाषित किया। उनके प्रवचन एवं आश्रम दुनिया भर के मनुष्यों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं।
उनके अस्तित्व में ही एक सुगंध थी। उनके विचार निर्विचार में ले जाने के द्वार हैं। उनकी वाणी निरन्तर उस ओर इंगित करती रही जो वाणी से परे है। उनके दृष्टिकोण में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं और वे तीनों ही जैन-दर्शन के अनुरूप हैं। प्रथम तो उनका दृष्टिकोण नैतिक नहीं, अति नैतिक है। मूलत: यह जैन शास्त्रों की दृष्टि है, जहाँ पाप और पुण्य को क्रमश: लोहे एवं स्वर्ण की बेड़ियाँ माना गया है। दूसरे रजनीश ने दर्शन पर अधिक बल दिया है, चरित्र को दर्शन का सहज प्रतिफल बताया है। जैन शास्त्रों में भी सम्यक् दृष्टि के अभाव में अच्छे से अच्छे कर्म को भी निरर्थक माना है। आचरण ऊपर से ओढ़ा हुआ पाखण्ड भी हो सकता है। वास्तव में सम्यक् दृष्टि जो करती है, वहीं सम्यक् चरित्र है। तीसरे रजनीश ने जीवन के सत्य को तर्क की पकड़ से बाहर बताया है। जीवन विरोधी तत्त्वों से बना है परन्तु सत्य पाने के लिए तर्क से परे जाना होता है। यही जैन दृष्टि है-सत्य को शब्दों में बाँधना या तर्क से सिद्ध करना सम्भव नहीं। वह अनिर्वचनीय है। प्रतिक्रमण एवं सामायिक रजनीश जी के अनुसार ध्यान के ही दो चरण हैं। प्रतिक्रमण प्रकिया है चेतना को भीतर लौटाने की, सामायिक प्रक्रिया है बाहर से लौटी चेतना को आत्मसात् करने की। समय में स्थिर होना ही आत्मा में प्रवेश करना है।
रजनीश जी ने जैनों के स्त्री-मोक्ष एवं स्त्री तीर्थंकर के प्रश्न पर श्वेताम्बर/दिगम्बर सम्प्रदायों में छिड़े विवाद को अनर्थक बताते हुए कहा