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जैन-विभूतियाँ
सन् 1960 फरवरी में मुनिजी ने कलकत्ता प्रवास के दौरान द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन का संयोजन किया जिसमें अहिंसा के प्रचार के लिए द्विसूत्री योजना बनाई गई एवं एक "अहिंसा विज्ञान कोष'' की स्थापना की गई। इस सम्मेलन में ईरान, अरब राज्य, वर्मा, जापान, मलाया आदि देशों से पधारे प्रतिनिधियों ने योगदान दिया।
इसी क्रम में मुनिजी ने सन् 1965 में तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन एवं सन् 1970 में चतुर्थ विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में किया जिसमें संत तुकडोजी महाराज, भंते कुशक बकुला, महामान्य आर्मेनियन पोप एवं अमेरिका, जापान, युगोस्वालिया, स्काटलैंड, फिनलैंड, हालैंड, पोलैंड, इटली, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों से पधारे प्रतिनिधियों का विशेष योगदान रहा। दिल्ली के रामलीला मैदान में फरवरी सन् 1970 में आयोजित चतुर्थ विश्व धर्म सम्मेलन में 'मनुष्य के सर्वांगीण विकास में धर्म की भूमिका'' को मुख्य मुद्दा बनाया गया। सम्मेलन में पधारे थाईलैंड, जापान, लाओस, हालैंड, पेनेमा, ईरान, एथेन्स एवं जर्मनी के प्रतिनिधियों ने ''वासुधैव कुटुम्बकम्' के विचार प्रसार को बल दिया एवं धर्मों के समन्वयात्मक अध्ययन के लिए एक विश्वविद्यालय की स्थापना को समीचीन बताया।
- सन् 1975 में मुनिजी ने भगवान महावीर के सन्देश को विश्वव्यापी बनाने का बीड़ा उठाया। वे विदेश-यात्रा की तैयारी में जुट गए। उनका यह निर्णय भी शास्त्रीय मर्यादाओं के विपरीत था। श्रावक संघ में गहरा असन्तोष पैदा हो गया। प्रतिरोधों की तलवारों के बीच से गुजरते हुए वे विदेश पधारे। श्रमण संघ ने संघ-बहिष्कृति का फतवा दिया। परन्तु भगवान बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण की भाँति मुनि सुशीलकुमार सर्वजनस्वीकृत होकर चरित्र नायक बन गए। भारत लौटने पर सन् 1980 में प्राय: सभी जैन सम्प्रदायों एवं विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधियों के साक्ष्य से उन्हें "आचार्य' पद से विभूषित किया गया। हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिक्ख, पारसी, इस्लाम आदि सभी धर्म संघों के प्रतिनिधियों ने शाल भेंट कर उनकी अभ्यर्थना की। अपने ही सम्प्रदाय से बहिष्कृत वे सर्वधर्म समभाव के प्रतीक अद्भुत जैन आचार्य थे।