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जैन- विभूतियाँ
आग्रह कर बन्दूक को मुनिश्री का हस्त- स्पर्श करवाया और आश्चर्य, बन्दूक काम करने लगी। मुनिश्री स्वयं असमंजस में पड़ गये। यह प्रभु की अनुकम्पा का ही प्रसाद था ।
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सन् 1954 में मुनि श्री ने बम्बई में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 98 धर्म गुरुओं ने परस्पर चर्चा कर विश्वशांति एवं उन्नति के लिए पाँच आधारभूत सिद्धांत तय किए, यथा - 1. आध्यात्मिक वृत्ति, 2. सह-अस्तिव, 3. सत्य, 4. अहिंसा एवं 5 प्रेम ।
विभिन्न धर्मों एवं जैन सम्प्रदायों का आपसी मन-मुटाव भी प्रबल होने लगा था। संकीर्ण मनोवृत्ति एवं अंध परम्पराओं से ग्रसित साधु थोथे अभिमान, आचारिक - शिथिलता, असत्य भाषण एवं छींटाकसी से वातावरण को दूषित कर रहे थे। 17 नवम्बर, 1957 को दिल्ली में मुनिश्री ने विराट प्रथम विश्व धर्म-सम्मेलन का संयोजन किया । धार्मिक क्रिया-कलापों के प्रबल विरोधी भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी इस सम्मेलन को उद्बोधन दिया । विश्व में कुल 2200 से अधिक धर्म के नाम व रूप बताए जाते हैं। जन-मानस किं कर्त्तव्यविमूढ़ हुआ उनके आपसी मतभेदों एवं धर्मांध कट्टर पंथियों के पाशविक अत्याचारों को सहता रहा है। धर्म के नाम पर विकृति एवं छल की पराकाष्ठा असहनीय होती जा रही है। ऐसे समय में विज्ञान के यथार्थ एवं धर्म के परमार्थ का सामन्जस्य अभिप्रेय था । बुद्धि और श्रद्धा का समन्वय करने वाली अनेकान्त दृष्टि ही जीवन को पूर्ण बना सकती है। दुराग्रह ही मिथ्यात्व और निराग्रही वृत्ति ही सम्यक्त्व का मूल है। साम्प्रदायिक सहिष्णुता और पारस्परिक सदभावना सत्योन्मुखी की जीवन कुंजी है। इस सम्मेलन में 27 देशों के 260 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । ऐतिहासिक लाल किले में सम्पन्न अधिवेशन में विश्व बन्धुत्व की भावना के उद्रेक, विकास एवं प्रचार हेतु "विश्व धर्म संगम' की स्थापना एवं अहिंसा, सत्य एवं प्रेम की शक्तियों एवं क्षमताओं के अनुसंधान और सूक्ष्म अध्ययनार्थ "अहिंसा शोधपीठ' की स्थापना सम्बंधी निर्णय लिए गए।