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जैन-विभूतियाँ दीक्षा समाज का कलंक है।'' अपने ही सम्प्रदाय से उनका विरोध कम नहीं हुआ पर संत अडिग रहा। धार्मिक क्रांति के कंटकाकीर्ण मार्ग को प्रशस्त बनाया संत की सतत कला साहित्य और संस्कृति की उपासना ने। आपने 'प्रभाकर' एवं 'साहित्य-रत्न' की परीक्षाएँ सफलता पूर्वक उत्तीर्ण की। 'हिन्दी साहित्य' नामक एक पत्रिका का सफल संपादन/ संचालन किया।
सन् 1952 में विश्व-विश्रुत सादड़ी साधु-सम्मेलन हुआ। "भिन्नभिन्न 22 सम्प्रदायों में बँटी जैन स्थानकवासी साधु संस्था एक आचार्य के नियंत्रण में संगठित हो'-का उद्घोष उठा। तरुण सुशीलकुमार इस उद्घोष के जनक थे। विरोध के स्वर उठे। वातावरण क्षुब्ध भी हुआ पर अन्तत: सर्वान्मति "एक आचार्य" की योजना स्वीकृत हुई। बाल-दीक्षा जैसे अनेक विवादास्पद प्रश्न फिर उठे, हालाँकि अनुत्तरित रहे। आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज समस्त संघ के प्रथम संघपति मनोनीत हुए।
सन् 1953 के बम्बई प्रवास के दौरान मुनिश्री ने प्राणी रक्षा और मांसाहार निषेध को आन्दोलन का रूप दिया। मुनिश्री के प्रयास व प्रेरणा से बम्बई की नब्बे म्यूनिसिपल कमेटियों ने वर्ष के कुछ दिन समस्त कसाई खाने बन्द रखने के प्रस्ताव पारित किए। इससे विश्व में शाकाहार आन्दोलन को नया दिशा-दर्शन मिला। आप ही की प्रेरणा से बम्बई में गोरक्षा-समिति का निर्माण हुआ एवं गौ-संवर्धन के कार्य को बल मिला। लोनावाला के पशु बलि विरोधी आन्दोलन में मुनिश्री ने सक्रिय भाग लिया। वहीं एक चमत्कारिक घटना हुई। सुप्रसिद्ध सेसन जज एवं मुख्य न्यायाधीश जी. दिनकर भाई शिकार के लिए लोनावाला आए हुए थे। इत्तफाक से जैसे ही जज साहब एक शिकार पर निशाना साध रहे थे मुनिश्री उधर से निकले। उन्होंने बन्दूक पर हाथ रख दिया और बोले"यह हिंसा है पक्षी पर बन्दूक नहीं चलेगी।' जज साहब उस वक्त मुनि जी को टालने के लिए बन्दूक न चलाने पर राजी हो गये। मुनिश्री के प्रस्थान करते ही उन्होंने बन्दूक चलानी चाही पर आश्चर्य बन्दूक वाकई नहीं चली। जज साहब हैरान हो गए। पहुँचे मुनिजी के आवास एवं