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जैन-विभूतियाँ 22. आचार्य नानालाल 'नानेश' (1920-1999)
जन्म : दाँता (1920) पिताश्री : मोडीलालजी पोखरणा माताश्री : श्रृंगार बाई दीक्षा : 1939 पद/उपाधि : आचार्य (1962) दिवंगति : उदयपुर (1999)
आगम पुरुष के विशेषण से विभूषित दाँता (राजस्थान) की पवित्र माटी से उभरा यह बहुआयामी नक्षत्र जैनधर्माकाश को अपनी आभा से अनवरत रोशन करता रहा। ओसवाल श्रेष्ठि मोडीलालजी पोखरणा के घर माता श्रृंगार बाई की रत्नकुक्षि से सन् 1920 में एक बालक का जन्म हुआ। इस रूपस् शिशु का बड़े लाड़ से नामकरण हुआ-नानालाल। आठ वर्ष की वय में पितृ-वियोग ने बालक के कोमल हृदय में वैराग्य अंकुर का जन्म हुआ। भादसौड़ा में मुनिश्री चौथमलजी के उपदेश सुनकर तो सत्य-शोध की प्यास गहराने लगी। संसार में व्याप्त अज्ञान-अंधकार, अंधविश्वास-रूढ़ि, शोषण-दमन देखकर उनका हृदय संतप्त हो उठा। सन् 1939 में कंपासन में स्थानकवासी जैन युवाचार्यश्री गणेशीलालजी महाराज से उन्होंने जैन भगवती दीक्षा अंगीकार की। आगम-शास्त्राभ्यास के साथ नानालालजी ने विनय, विवेक और तीर्थयात्रा को अपना जीवन साथी बनाया। संस्कृत, प्राकृत, मागधी, अर्ध-मागधी, पाली आदि भाषाओं एवं बौद्ध-वैदिक दर्शनों का गहन अध्ययन उनके व्यक्तित्व को निखार गया। सन् 1962 में आचार्य गणेशीलालजी के महाप्रयाण उपरांत वे आचार्य पद से विभूषित हुए।
___ व्यक्तित्व की दृढ़ता, जनधर्मिता एवं सत्यानुसंधान की वृत्ति ने उनकी अन्तर्मुखता को समृद्ध किया। आध्यात्म के इस मोड़ पर उन्होंने सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। सन् 1963 में गुजरात के गुराड़िया