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जैन-विभूतियाँ
उप-सम्प्रदायों का विलिनीकरण कर 'वर्धमान श्रमण संघ' का गठन हुआ। उसमें सर्व सम्मति से आपको आचार्य का पद दिया गया ।
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सन् 1952 में सादड़ी में साधु सम्मेलन हुआ । उसमें स्थानकवासी सम्प्रदाय के बाईस से अधिक उपसम्प्रदायों का विलिनीकरण होकर श्रमणसंघ बना। उसमें आपको प्रधान मंत्री बनाया गया। आपके कार्यकाल में श्रमण संघ विकसित हुआ । आपने बड़ी सजगता से कार्य किया । हर दृष्टि से कहीं भी कोई त्रुटि नहीं रखी। भीनासर सम्मेलन के बाद आपने उपाध्यक्ष का दायित्व निभाते हुए ज्ञान-ध्यान की वृद्धि से श्रमण संघ की श्रीवृद्धि की ।
आचार्यश्री आत्मारामजी ने अपनी वृद्धावस्था के दिनों में श्रमण संघ को चलाने के लिए कार्यवाहक समिति बनाई । उसमें आपको प्रमुख बनाया और अपना दायित्व / अधिकार आपको सौंप दिया। आपने अनेक उलझनपूर्ण प्रश्न सुन्दर ढंग से सुलझाए । जो प्रश्न काफी समय से उलझे हुए थे उनका भी समाधान किया। सभी ने उस कार्य की भूरिभूरि प्रशंसा की । आचार्यश्री आत्मारामजी के देहावसान के पश्चात् अजमेर में सन् 1963 में सर्वसम्मति से आप आचार्य चुने गए। इतने पद मिलने पर भी आपको अभिमान लेश मात्र भी न था । आप अहंकार से दूर थे। प्रतिष्ठा की कोई भूख नहीं थी, न कोई चमत्कार की बात ।
ध्यान और स्वास्थ्य आपके प्रिय विषय थे। आपको मराठी, हिन्दी, गुजराती व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हजारों गाथाएँ, श्लोक, प्रसंग, सूक्ति और अभंग कंठस्थ थे। भाषा की दृष्टि से आचार्यश्री का परिज्ञान बहुविध और बहुव्यापी था। संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार था। मराठी आपकी मातृभाषा थी । सन्त तुकाराम के अभंगों को और अन्य मराठी सन्तों के भजनों को आप बड़ी तन्मयता के साथ गाते थे।
आपने विपुल साहित्य सृजन किया है। हिन्दी, संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में आपने 50 से अधिक ग्रंथ रचे हैं। जीवन का शिक्षा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । आपने प्रबल प्रेरणा देकर शताधिक स्थानों पर धार्मिक