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जैन-विभूतियाँ
79 मधुर सुरीली आवाज से भक्ति गीत सुनने के लिए ग्रामीण जनता आतुर रहती। बचपन में ही पिता की मृत्यु से बालक पर वज्राघात हुआ। तभी स्थानकवासी जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रत्नऋषि जी महाराज का आगमन हुआ। जैन व जैनेतर लोग प्रवचन सुनने के लिए उमड़ पड़े। नेमीचन्द भी पहुँच गया। प्रवचन सुनकर वह भाव-विभोर हो गया। माँ की आज्ञा से उसने प्रतिक्रमण सीखना प्रारम्भ किया। रत्नऋषिजी बालक की नम्रता एवं प्रतिभा देख चकित थे। हीरे की परख जौहरी ही कर सकते हैं। उन्होंने पूरी शक्ति लगा दी। नेमीचन्द भी गुरुदेव के प्रति पूर्णत: समर्पित था। वैराग्य के बीज अंकुरित हुए। गुरुदेव ने माता को 'नेमीचन्द' को जिन शासन को समर्पित कर देने की प्रेरणा दी। सन 1913 में मिरी ग्राम में रत्न ऋषि जी के सान्निध्य में नेमीचन्द दीक्षा अंगीकार कर 'आनन्द ऋषि' बन गए।
तदुपरान्त आनन्द ऋषि जी संयम-आराधना में तन्मय हो गये। थोड़े ही दिनों में वे आगम हृदयंगम कर व्याकरण, न्याय, साहित्य एवं संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में निष्णात हो गए। महाराष्ट्र के ग्रामीण अंचलों में अबाध गति से ज्ञान प्रसार होने लगा। वे व्यसन, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ छोड़ देने के लिए जनता को प्रेरणा देते।
सन् 1906 में सौराष्ट्र के मोरवी नगर में सम्पूर्ण जैन समाज को एक सूत्र में बाँधने के लिए अखिल भारतवर्षीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेंस की स्थापना की गई। - आपके अमृत महोत्सव के अवसर पर महाराष्ट्र शासन द्वारा आपको राष्ट्रसंत के विरुद से सम्मानित किया गया। दिल्ली जैन महासंघ ने आचार्य श्री को 'जैन धर्म दिवाकर' की उपाधि से अलंकृत कयिा। पंजाब जैन महासंघ की ओर से उन्हें 'आचार्य सम्राट' पद से विभूषित किया गया।
आपने देखा कि स्थानकवासी समाज में अलग-अलग अनेक सम्प्रदाय थे, सभी एक-दूसरे की काट करते, अपने को ऊँचा व श्रेष्ठ मानते थे। श्रावक भी बंट गए थे। कोई रचनात्मक कार्य नहीं हो रहा था। अत: विचार पूर्व सर्व सम्मति से स्थानकवासी सम्प्रदाय के पाँच