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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? उदय हो गया था, किन्तु अभी तक कातिल-ठण्ड का प्रभाव सिमटा नहीं था। सूनसान जंगलों में से अकेली सड़क पर हमारी बस आगे बढ़ रही थी। मुंबई से हमारा प्रवास प्रारम्भ हुआ था। देश के पूर्वी हिस्से के कल्याणक-तीर्थ हमारी आंखों के सामने तैर रहे थे।
हम 28 दिसम्बर 1973 को आगरा से शौरिपुरी जाने के लिए रवाना हुए। शौरिपुरी के शिखर हमें पुकारते हुए दिखाई देते थे। किन्तु किसे पता था कि विधि के मोड़ विचित्र होंगे? बस वटेश्वर के पास जा रही थी, उतने में अचानक ही सात-आठ डाकुओं का आक्रमण हुआ। उन्होंने हमारी बस को रोक दी। कल्लोल करती बस में एकदम करुण सन्नाटा छा गया। सभी के मुंह में 'शंखेश्वर का स्वामी' आ बसा और सभी मन ही मन नमस्कार महामंत्र का जप करने लगे।
डाकुओं के लिए पल-पल कीमती था। बंदूक की नोंक पर उन्होंने लूट चलायी। किसी की नकद राशि झपटी, तो किसी के गहने छिने गये। किन्तु यह तो फिल्म का टेलर ही था। फटी आंखो से हम विचारों के सागर में डूब रहे थे, उतने में वहाँ हम चारों को डाकू फिरौती (बान) के रूप में पकड़ कर चलते बने। उनका ऐसा अनुमान था कि इनमें मफतलाल ग्रुप की सुखी संतानें है, इसलिए फिरौती के रूप में मुंह मांगी बड़ी राशि मिलेगी।
बस में बैठे सभी हमारी इस धरपकड़ को देखते ही रह गये। वे दूसरा कर भी क्या सकते थे? डाकुओं की बंदूक की नोंक ऐसी जोरदार थी कि, उनके सामने एक शब्द भी बोलने में जान की जोखिम थी। ऐसे जंगल में रक्षा भी कौन करे? चारों ओर डाकुओं का ही राज था?
बंदूकबद्ध छः डाकू और हम चार। इस प्रकार हमारी दस की टुकड़ी जल्दी से गहन जंगल की ओर चलती बनी।
डाकुओं के हाथ में रही हुई बंदूक का डर, हमें तेज गति से दौड़ाता था। थोड़ी देर में तो हम कहाँ के कहाँ दूर-दूर जंगलों में चले गये। समाचार पत्रों में पढ़ी हुई कहानियों में चंबल की घाटियों एवं वहां
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