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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? - के डाकुओं की करुण कहानियां ताजी होने लगीं। यहाँ किसका सहारा था। हमारे मुंह में महामंत्र नमस्कार और शंखेश्वर की श्रद्धा सभर रटना थी।
पत्थर एवं कांटो से भरी धरती थी। शहरी सुविधाओं का शौक, हमको आगे बढ़ने से रोकता था। किन्तु यहाँ तो दौड़ना ही था। फेफड़े फूल जायें इस प्रकार की दौड़ में थोड़ी भी गति धीमी होती तो, डाक बंदूक की नोंक बताकर उस धीमी गति को बढ़ा देते थे।
जंगली-रास्ते ऐसे टेढे-मेढे अनजान थे कि यहाँ भोमिया भी भूल जाये। दूर-दूर दृष्टि जाते ही. हमसे निराशा भरी चीख निकल जाती, हाय! , | इस दौड़ का अन्त नहीं आयेगा क्या?
दो घण्टे की रखड़पट्टी के बाद किसी नदी के प्रवाह की कलकल ध्वनि सुनायी दी और हमको आराम की आशा लगी, किन्तु यह आशा निराशा में पलट गई। डाकुओं ने तो कपड़े ऊँचे किये और हमें कठोर आवाज से कहा "साले! खड़े क्यों रह गये! चलो, नदी में आगे बढ़ो!"
सर्दी के मौसम की कातिल ठण्ड! सांय सांय आवाज़ के साथ बहती ठंडी हवा! और वापिस नदी के पानी में दौड़ना! हमारे हदय कांप उठे। डाकुओं के सामने आंख भी ऊँची करने की ताकत किस में थी? हमारा जल प्रवास प्रारम्भ हुआ। हमको पानी में पैर रखते ही लगा 'यह पानी हमारी चेतना को बर्फ तो नहीं बना डालेगा न?
यह यमुना नदी थी। डाकुओं की सजग चौकीदारी के साथ हमारी दौड़ शुरु हुई। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये वैसे वैसे नदी की गहराई बढ़ती गयी। पानी कमर तक आया। एक स्थान पर तो नदी में लकड़ियां गाढी हुई दिखाई दे रही थीं, उस तरफ से हमारा प्रवास आगे बढ़ते गया।
यमुना के मध्य में आने पर तो पानी छाती तक पहुंच गया। अंग अंग में भय की धड़कन तो थी ही! उसमें एकदम ठण्डा पानी आया। डाकू अभी तक मौन ही थे, इनकी घुरकती हुई आंखों में से निकलती भय की छाया ही हमें डराने को पर्याप्त थी। ऐसी भयानक धड़कन के