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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? साथ ही हमने नदी के उस पार पैर रखे।
वहाँ से एक डाकू अलग हो गया और वह दूसरे रास्ते से जाने लगा। अभी तक उसने मुंह पर कपड़ा बांधा हुआ था।
हमें लगा कि यह शहर की खबरें पहुंचाने वाला होना चाहिए। शहर में ही इसे रहना पड़ता होगा, इसलिए पहचाना न जाए, इसकी सतत चिंता के कारण वह इस प्रकार रहता होगा?
अब समतल जमीन का अन्त आया। दूर-दूर तक दिखाई देती गहन | घाटियाँ चंबल के घाटी प्रदेश की पहचान दिखा रही थीं। __हम पानी से लथपथ कपड़ों से घाटियों की पगडिओं पर चलने लगे। हमें लगा, डाकू शायद अपने को छोड़ दें, तो भी यह रास्ता अपने ध्यान में कैसे आयेगा? डाकुओं से नजर बचाते हुए हमारे में से नवीनभाई ने गुप्त रखी हुई घड़ी एवं अंगुठी एक शिला के पीछे डाल दी अंगुठी से भी उस समय हमारे मन में, रास्ते की पहचान अधिकतर कीमती थी। । घाटियों के भेदी प्रवास को अभी कुछ मिनट ही हुए होंगे, वहां दूसरी नदी दिखाई देते ही हमारा होश उड़ गया। दूसरी नदी का घड़कन भरा प्रवास भी पूरा हुआ। पुनः घाटियाँ आयीं! पुनः दौड आरम्भ हुई। अब तो सूर्य भी मध्याह्न में आ गया था। ठंड अब शान्त हो गयी थी किन्तु पेट पुकारने लगा था। बिना खाये-पिये हम शहरी किस प्रकार इस दौड़ को पूरी कर सकते थे? डाकुओं ने अपने पास कंधे पर बंदूकें रखकर अपना भारी-सामान भी हमारे पर लादकर जो कमी शेष रह गयी थी, उसे भी पूरी कर दी थी! उसमें तीन सेना (मिलेटरी) के थैले, एवं दो पोटले एवं एक पानी की बोतल थी!
ढाई घन्टे की भटकन के बाद एक घाटी आयी। डाकुओं को यह स्थान सुरक्षित लगा। इन्होंने प्रवास रुकवाया। सब खड़े हो गये।
एक ओर डाकुओं की पंक्ति बैठी, दूसरी ओर हमारी। हमें भविष्य के भेद समझ में नहीं आ रहे थे। उतने में तो डाकुओं ने लूट का माल बाहर निकाला। हमें लगा शायद यहाँ लूट का बंटवारा किया जाएगा।
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