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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
छोटी उम्र में दादा के डंडे के डर से भी पाठशाला में प्राप्त किया धार्मिक शिक्षण मेरे काम आया। मुझे ऐसा लगा
'हे जीव ! तेरे किये हुए तुझे भोगने हैं... पाप करते समय कितनी तीव्र आसक्ति से घुल-मिलकर हृदय की उमंग थी ? अब वह पाप उदय में आया तो हे जीव ! क्यों आकुल व्याकुल हो रहा है?
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इस समय मुझे मेरे भूतकाल में किए गए पाप (इस जीवन में आजादी से किये हुए अभक्ष्य भोजन, रात्रि भोजन और वासना, विलास एवं विकारों की पोषक प्रवृत्तियाँ ) याद आये... हृदय थरथर कांपने लगा... विद्या और बल का अभिमान सिकुड़ने लगा... और मन में से आवाज आई कि- " तुझे इसमें से मुक्त होना हो, तो विश्ववत्सल, करूणा के भंडार, अरिहंत प्रभु को याद कर... उनके द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार ... मैं कुछ क्षण आँखें बंद कर समुद्र में नाव डूबने की तैयारी हो वैसी असहाय स्थिति में अंतःकरण की गहराई में से सहज रूप से हो रही पुकार - अरिहंत... अरिहंत के नाद को सुनने लगा ।
मुझे थोड़ी देर बाद अंतःस्फुरणा हुई कि, वात्सल्यमयी माता ने मुझे विदेश विदाय करते समय चंदन की माला मेरे हाथ में रखते हुए कहा था कि "बेटा ! प्रतिदिन एक पक्की माला गिनना ! ! !' किंतु आज तक मैंने पुण्य के उदय से धारणा से अधिक भौतिक भोगविलास की सामग्री मिलती रहने के कारण उस माला का स्मरण तक नहीं किया, फिर भी श्राविका ने अपनी फर्ज समझकर उस चंदन की माला को मेरे सिरहाने के पास रखी थी।
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सच्चे आर्तभाव से...शरणागत भाव से... अनन्य भाव से... तुम ही माता, तुम ही भ्राता... त्वमेव शरणं मम... सरल भाव से सिरहाने रखी माला लेने की शक्ति न होने से द्रव्य से माला न लेने के बावजूद मैं भाव से श्रीनवकार की शरण में पहुँच गया था। मेरे द्वारा थोड़ी देर में सहजता से णमो अरिहंताणं... णमो सिद्धाणं इस प्रकार एक के बाद एक श्री नवकार महामंत्र के पद हृदय की अतल गहराई में से गिने जाते रहे।
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