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• जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
अधिक अंतर्मुख बनता जाता है। मन जब स्वयं अन्तर्मुख रहने लगता है, तब उसकी अशुद्धियां, ईर्ष्या, असूया, तिरस्कार, घृणा, क्रोध, मद, तृष्णा एवं भोग की तीव्र आसक्ति दूर होती जाती है। और चित्त शांत, सम, स्वस्थ बनता जाता है।
उसे अन्य संकल्प विकल्प कम ही रहते हैं। अंतर में रहे हुए डर, जीर्णता, मलिनता और मृत्यु आदि से पर रहे हुए तत्त्व के साथ उसका अनुसंधान बढ़ता जाता है। जिसके कारण साधक स्वयं के कर्मकृत व्यक्तित्व से ऊपर उठता जाता है। इस तरह उसमें आत्मदर्शन की योग्यता विकसित होती जाती है। इस तरह साधक का जीवन उत्तरोत्तर अधिक विकासगामी बनाकर, नवकार उसे उसके ईष्ट मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
उसके साधक को बीच-बीच में भौतिक लाभ भी मिलते हैं, इसका कारण यह है कि निरंतर परमात्मा के स्मरण से उसके पापकर्मों का ह्रास होता है, अर्थात् पापकर्म की शक्ति ( स्थिति एवं रस) घट जाती है। वह निर्बल बन जाती है और पुण्यकर्म सबल बनता है परिणाम स्वरूप आपत्ति टल जाती है, सम्पत्ति मिल जाती है।" ऐसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पासणो" यह सूत्र ज्ञानियों ने दिया ही है। विपत्ति पापकर्म से ही आती है। जिसके पाप नष्ट हो जाते हैं उसकी विपत्ति जिस तरह ओस के बिन्दु, सूर्य निकलते ही अदृश्य हो जाते हैं, उसी प्रकार भाग जाएं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
किन्तु उस समय साधक को यह स्मरण में रखना चाहिये कि दुःख बिच्छु के डंक के समान है और सुख सांप के डंक के समान है। इसमें आंखों को नीन्द आराम से घेर लेती है, जागृत रहने के लिए मनुश्य को मेहनत करनी पड़ती है। उसी प्रकार सुख में मोह के हमले से ज्यादा सावधान रहना आवश्यक है। धन सत्ता सामाजिक प्रतिष्ठा, कीर्ति या भोग सुख की तष्णा चित्त पर कब्जा न जमाए और नवकार के जप के ऊपर की पकड़ ढीली न पड़ जाये, उसकी सावधानी उस समय साधक को विशेष रखनी चाहिये, नहीं तो मोह का नशा चढ़ने में देर नहीं लगेगी।
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