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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? आगे के केम्प पर पहुंचना होता है और पहुंचना ही पड़ता है। उसके बिना छुटकारा नहीं। कंधे पर थैला, हाथ में डंडा और पैरों में जूते। बस, सभी निकले। शाम होने लगी और सभी ने चलने की गति तेज की। उसमें कोई किसी के लिए राह नहीं देखता। प्रत्येक की सभी के साथ चलने की जिम्मेदारी स्वयं की होती है। मेरे पिता धीरे-धीरे अपनी मस्ती में चल रहे थे। अचानक उन्हें ख्याल आया कि वे सभी से पीछे रह गये हैं। सबसे अलग! अंधेरा हो गया था।
जंगल की राह थी। ट्रेकींग हाईकिंग तो कठिन ही होती है ना? जंगल या बर्फ अथवा पर्वतीय प्रदेश में ऊपर या नीचे बस तकलीफ ही तकलीफ!! या आनन्द ही आनन्द!!
अंधेरा बढ़ता जा रहा था। समान में देखा तो टॉर्च नहीं थी। वह शायद किसी दूसरे के सामान में चली गयी थी। दिखाई देना बन्द हो गया, अमावस की रात होगी और जंगल की राह, कोई दिखाई न दे।
ऐसे समय भगवान याद नहीं आये, वैसा हो नहीं सकता। जब भगवान याद आते हों, और हाजिर न हों, वैसा भी नहीं हो सकता।
पिताजी ने भी नवकार मंत्र चालु किया। जो उनके स्मरण करने की आदत ही थी। किन्तु तब सही चालु किया था, वैसा उन्होंने कहा था। मुझे सही याद है वे अपने केम्प में पहुंच गये। बात इतनी सरल और आसान मत समझना। केम्प पर तो वे पहुंचे मगर किस प्रकार?
हां वही महत्त्व की बात है? जब बे नवकार बोलकर खुद आगे बढ़ते और अपनी लकड़ी आगे रखते कि लकड़ी के नीचे के भाग में से आगे देख सकें, उतना प्रकाश पड़ता और वे आगे कदम बढ़ा सकते। वे नवकार बोलते जाते और लकड़ी आगे रखते जाते थे। आगे का रास्ता दिखता गया, वैसे करते करते वे केम्प में पहुंच गये।
. वास्तव में आश्चर्य तो इस बात का है कि उन्हें इस बात का भान केम्प में पहुंचने के बाद हुआ। उनसे आगे पहुंचे हुए मित्र अपने मित्र हिम्मतभाई की चिंता के साथ राह देख रहे थे। उनको देरी से आने के
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