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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
मैं फिर प्रतिक्रमण कर गाँव के सभी जिनमंदिरों में जाता हूँ। हमारे गाँव के जिनमंदिर बहुत ही रमणीय हैं। प्रतिमाजी प्राचीन हैं। दर्शन करके आने के बाद नवकारसी करता हूँ। वहां नौ- साढे नौ बज जाते हैं। फिर व्याख्यान होता है तो सुनता हूँ। दस से ग्यारह बजे तक भाभा पार्श्वनाथ के पास जो कार्यक्रम सुबह चार से पांच बजे के बीच करता हूँ, उसे दोहराता हूँ। मुझे यहां बहुत ही शांति मिलती है।
फिर पूजा कर, खाना खाने का समय होने पर खाना खाकर आधा घंटा धार्मिक वांचन करता हूँ। फिर थोड़ी देर आराम करके, दो तीन सामायिक करता हूँ। उसमें नवतत्त्व वगैरह का थोड़ा अभ्यास एवं ध्यानादि करता हूँ।
मैं शाम को भोजन के समय भोजन कर जिनमन्दिरों के दर्शन करके प्रतिक्रमण करता हूँ। बाद में म.सा. होते हैं तो वैयावच्च, भक्ति कर घर आता हूँ। सभी जीवों से क्षमायाचना कर भावना भाकर, नवकार गिनते-गिनते सो जाता हूँ। दो चार नवकार गिनते ही मुझे ऐसी नीन्द आती है कि कब सोये, कहां सोये का पता ही नहीं चलता । नीन्द में "ॐ ह्रीँ अर्ह नमः" या " नमो अरिहंताणं" इस एक पद का जाप तालबद्ध तरीके से घड़ी के टिक-टिक आवाज की तरह चालु रहता है। मैं चलते-फिरते, उठते बैठते, बस में, ट्रेन में, जहाँ समय मिलता है वहाँ 'नमो अरिहंताणं" या "ॐ ह्रीं अर्ह नमः" का जाप चालु रखता हूँ। और आधे-आधे घंटे बाद मन की जांच करता हूँ कि उसमें क्या विचार चल रहे हैं?
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मेरा पिछले दस वर्ष से यह कार्यक्रम चालु है। उसमें पहले पांच वर्ष में कोई निश्चित कार्यक्रम तय नहीं था । किन्तु " जो थोड़ा समय आराधना के लिए मिला है, उसका पूरा उपयोग कर सद्गति साध लूँ।" इस धून से नवकार और प्रार्थना, फिर भावना और नवकार इस प्रकार दिन और रात रटना रखी। उसके बाद में मैंने उपरोक्त प्रकार का एक कार्यक्रम तय कर लिया।