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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? - पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. को मार्च 1977 को लिखा हुआ पत्र) - "आप श्री की कृपा से यह सेवक सही तरह से आत्मसाधना की
दिशा में पैर बढ़ा रहा है। इस आपकी अनहद मंगलकृपा का आभारी हूँ। पंच परमेष्ठियों की शरण में वृत्तियों का शमन विशिष्ट रूप से होने लगा है। मोह माया या विकार, श्री नवकार के तेज के आगे खड़े नहीं रह सकते, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आंतरिक आत्मशान्ति की सीढ़ियों पर दृढता से टीके रहने का बल आपकी वरद कृपा से इस तुच्छ सेवक-पामर जीव को भी प्राप्त हो रहा है। चिंतन मनन के अनेक अद्भुत सत्य साक्षात् अनुभव कर जीवन को धन्य- तार्थ अनुभव कर रहा हूँ। स्वकल्याण की निष्ठा से पर कल्याण स्वतः होने लगता है। करने की वृत्तियाँ अब शान्त हो गयी हैं। परमेष्ठियों की आज्ञा यह जीवन का महामंत्र बन रहा है।
कुछ चाहने जैसा अब नहीं रहा। |- संसार की घटमाल औदयिक भावजन्य हर्ष-शोक या राग-द्वेष पैदा
नहीं कर सकती। संयम का अपूर्व आनन्द-अनुत्तर विमानवासियों को भी रंक तुल्य समझे, वैसी अपूर्व मस्ती के दर्शन होने लगे हैं। यह परमेष्ठियों का
और आप जैसे गुरु भगवन्तों का पुण्य प्रताप है। . आसक्ति रहित भाव-स्थितप्रज्ञता और वृत्तिगत धीरता अब सुस्पष्ट रूप से जीवन के प्रत्येक चक्र में पिरोई जाती अनुभव होती है। बाह्य दृष्टि से शायद मेरे आसपास अनेक प्रवृत्तियों के जाल दिखाई देते हैं किन्तु अन्दर से भेद ज्ञान की रेखा का उल्लंघन
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