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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
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'खड़े रहो' की तेज आवाज सुनते ही सब चौंक उठे।
देखते हैं तो हाथ में बंदूक लेकर 4-5 लूटेरे जैसे लोग दोनों बहिनों को घेर कर खड़े थे। हष्टपुष्ट शरीर, लम्बी-लम्बी मूँछें, बड़ी-बड़ी आँखें और भरावदार चेहरा ... सिर पर साफा पहने हुए यह लोग डाकुओं की किसी टोली के लगते थे।
दोनों बहिनें बहुत डर गईं। अब क्या करना चाहिये- कुछ समझ में नहीं आ रहा। ड्राइवर भी खड़ा खड़ा कांप रहा था ! आखिर उस श्रीमंत बहिन ने कहा कि " भाई, तुम्हें क्या चाहिए? लो, यह मेरे सभी गहने तुम्हें दे देती हूँ।" इस प्रकार कहकर अपने शरीर के उपर शोभायमान हो रहे सभी गहने उतारने लगीं, किंतु वह बंदूकधारी तो कहता है कि "नहीं, यह नहीं चाहिए, तुम इस ओर चलो!" ऐसा कहकर सामने की दिशा बतायी। इस कारण वे किंकर्तव्यविमूढ़ बन गये, कारण कि 'इस ओर चलो' अर्थात् क्या? यह तो शील के उपर संकट आ गया। अब क्या करना ? इसमें से किस प्रकार बचना? ऐसे विचार करने लगीं।
वह लूटेरा भी घन की लूट प्रतिदिन करता होगा। किंतु आज उनका रूप देखकर जैसे उसे भी रूप की लूट करने का मन हो गया। इसलिए तो उसने बस यही आग्रह रखा कि, 'इस ओर मेरे साथ चलो।'
तब उस बहिन को अचानक ही नवकार महामंत्र याद आया । वह बस, मन ही मन में इसका रटन करने लगी। नवकार महामंत्र के अधिष्ठायक देवों को कह दिया कि, " आज मेरे शील की रक्षा करना आपके ही हाथ में है, हे प्रभु! मुझे बचाओ !" जब खूब भावपूर्वक नवकार का जाप होता है, तब वहीं चमत्कार होता है। उस भोग- भूखे डाकू की कामवासना अचानक उतर गई। उसे मन में लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? और तुरंत पूछता है कि, " तुम कहाँ से आये हो?" -" राजकोट से।" "कहाँ जा रहे हो?" "मुम्बई । " " जाओ बहिन जाओ । रूप एवं एकांत देखकर मैं पिशाच बनने जा रहा था। किंतु अब मेरी अंतर आत्मा ही मुझे धिक्कार रही है। तुम खुशी से जा सकती हो। मेरे अपराध
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