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________________ टिप्पण १.सूत्र १ जहां गृहस्थ-स्त्री पुरुष रहते हैं, वह स्थान सागारिक शय्या है। अथवा जहां रहने पर मैथुनोद्भव काम का उद्दीपन हो, वह सागारिक शय्या है। 'सागारिक' सामयिकी संज्ञा है। भाष्य एवं चूर्णि में विविध निक्षेपों के द्वारा इसकी विस्तृत व्याख्या उपलब्ध होती है। सागारिक शय्या में रहने से विस्रोतसिका की संभावना रहती है। भुक्तभोगी के लिए स्मृति तथा अन्य के लिए कुतूहल का विषय होने के कारण भिक्षु का मन संयम-योगों से विचलित हो सकता है, स्वाध्याय, ध्यान में विक्षेप उत्पन्न हो सकता है। अतः भिक्षु को स्त्री, पशु एवं नपुंसक से विविक्त शय्या में रहने का निर्देश प्राप्त होता है। प्रस्तुत संदर्भ में सागारिक शब्द की विस्तृत व्याख्या एवं निक्षेप पद्धति से सविस्तर निरूपण करते हुए भाष्यकार ने रूप, आभरणविधि, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गन्ध, आतोद्य आदि के प्रकार, उनसे होने वाले दोष, भावसागारिक में दिव्य, मानुषिक एवं तिर्यंच की प्रतिमा, उनसे होने वाले दोषों की तरतमता, कहां, कौन से दोषों की संभावना, दोषों से बचने के लिए प्रयोक्तव्य यतना तथा अन्य अनेक अपवादों की विस्तृत विवेचना की है। २. सूत्र २ जहां पानी के घड़े आदि हों, वह प्याऊ आदि अथवा जिसके निकट कोई जलाशय हो, वह स्थान सोदक शय्या है। जहां बहुत प्रकार के जल से भरे घड़े हो, वहां रहने से अगीतार्थ भिक्षु प्यास बुझाने अथवा कुतूहल शान्त करने के लिए जल पी ले अथवा अन्य कोई गृहस्थ जलकुम्भ को चुरा ले, पशु घड़े को फोड़ दे तो जल के १. निभा. ४ चू.पृ. १-सागारियं ति एसा सामायिकी संज्ञा । जत्थ वसहीए ठियाणं मेहुणोब्भवो भवति, सा सागारिया।....जत्थ इत्थीपुरिसा वसंति, सा सागारिका। २. वही, गा. ५०९७-५१०१ ३. वही, गा. ५१०३-५११२ ४. वही, भा. ४ चू.पृ. २९-जत्थ दगं ति पाणियघरं प्रपादि, जाए वा सेज्जाए उदगं समीवे वप्पादि। ५. वही, पृ. ३७,४७-५२ ६. आचू. २०४९ स्वामी को अप्रीति हो सकती है, वह भिक्षु को कष्ट दे सकता है। इसी प्रकार जलाशय आदि के अतिनिकट जाने अथवा रहने पर वहां आने वाले जलाभिलाषी प्राणियों के अन्तराय, भय, अप्रीति आदि दोष उत्पन्न होते हैं। अतः आयारचूला एवं कप्पो (बृहत्कल्प सूत्र) में सोदक शय्या का निषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में उसी के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ३. सूत्र ३ जहां रातभर दीपक जलता हो अथवा हवन-कुंड आदि में आग जलती हो, वह साग्निक शय्या है। साग्निक शय्या में प्रवेश, निष्क्रमण, प्रमार्जन तथा आवश्यक, सूत्रपौरुषी आदि में उठते-बैठते समय अग्निकायिक जीवों की विराधना संभव है, असावधानी से उपधि आदि जलने की भी संभावना हो सकती है। अतः कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में ज्योतिसहित एवं दीपसहित शय्या में रहने का निषेध किया गया है। आयारचूला में भी साग्निक शय्या में प्रवेश, निष्क्रमण, स्थान, निषीदन आदि क्रियाओं का निषेध किया गया है। प्रस्तुत आगम में उसके अतिक्रमण का लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ४. सूत्र ४-११ प्रस्तुत आलापक में भी पूर्वोक्त आम्र-पद के समान आठ सूत्र हैं। सचित्त एवं सचित्त प्रतिष्ठित आम को खाने का निषेध करने से सारे सचित्त एवं सचित्त-प्रतिष्ठित फलों का निषेध प्राप्त होता है। फिर भी आयारचूला३ में इक्षु का पृथक् निषेध तथा प्रस्तुत आगम में उसका पृथक् प्रायश्चित्त कथन किया गया है क्योंकि इक्षु फल नहीं है, स्कन्ध है। बहुउज्झितधर्मा होने के कारण भी इसका निषेध आवश्यक है। इनमें सचित्त एवं सचित्त-प्रतिष्ठित इक्षु तथा ७. कप्पो . २/५ ८. निभा. ४ चू.पृ. ५७ ९. वही, गा. ५३८०-५३८४ १०. कप्पो. २/६,७ ११. आचू २/४९ १२. निसीह. १५/५-१२ १३. आचू. १/१३३ १४. वही, टी.प. २५४-अन्तरिक्ष्वादिकेऽल्पमशनीयं बहुपरित्यजन धर्मकमिति मत्वा न प्रतिगृण्हीयात् ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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