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१.रोष
उद्देशक १६ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं उसके विविध अवयवों को खाने तथा स्वाद लेकर खाने का प्रायश्चित्त ६. सूत्र १४,१५ . प्रज्ञप्त है।
जो निरन्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रत रहता है, चारित्र रूपी शब्द-विमर्श
रत्नों से युक्त होता है अथवा इन्द्रिय-निग्रह में रत है, वह वसुरानिक अंतरुच्छुय-पर्व रहित इक्षु खंड।'
कहलाता है। अथवा वसुरात्निक का अर्थ है संविग्न । ५ उच्छुखंडिय-दोनों पर्व सहित इक्षुखंड।
संविग्न को असंविग्न कहने के चार कारण हो सकते हैंउच्छुचोयग-वंश के अन्तभाग सहित इक्षु का रुंछा।
२. प्रतिनिवेश उच्छुमेरग-इक्षुमोय अर्थात् इक्षु की आभ्यन्तर गिरी।'
३. अकृतज्ञता
४. मिथ्यात्वोदय ।१२ उच्छुसालग-इक्षु की बाह्य छाल।
'संविग्न और विशुद्धचारित्री को उपर्युक्त किसी भी कारण से उच्छुडगल-इक्षु का चक्राकार छोटा टुकड़ा।
असंविग्न कहने वाला अथवा उनके चारित्र की हीलना करने वाला शेष सचित्त-प्रतिष्ठित, विडसति आदि पदों के विमर्श हेतु दुर्लभबोधि होता है। वह प्रवचन का परिभव करता है तथा अलीक द्रष्टव्य निसीह. १५/५-१२ के शब्द विमर्श ।
वचन एवं साधुओं के प्रति विद्वेष के कारण दीर्घसंसारी होता है। ५. सूत्र १२,१३
जो व्यक्ति स्वयं अवसन्नचारित्री होता है, वह स्वयं के दोषों अरण्यवासी अथवा घास, लकड़ी, फल आदि लेने के लिए का आवृत करने के लिए पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि शिथिलाचारियों वन में जाने वाले लोगों का समुदाय दो प्रकार का होता है
की प्रशंसा करता है। वह मंदधर्मा असंयम का स्थिरीकरण करता १. अटवी-यात्रा के लिए संप्रस्थित।
हआ स्वयं उन्मार्ग में प्रस्थित होता है तथा अन्य मन्दधर्मा व्यक्तियों २. अटवी-यात्रा से प्रतिनिवृत्त।
को प्रशंसा के द्वारा उन्मार्ग में प्रेरित करता है। इस प्रकार वह सुदीर्घ अटवी में प्रवेश करने से पूर्व वे अपनी यात्रा के लिए प्रकारान्तर से तीर्थ का अवर्णवाद करता है।५ असंविग्न की प्रशंसा पाथेय लेते हैं। यदि उस पाथेय में से भिक्षु ग्रहण कर लेता है तो उन करने वाला दीर्घसंसारी होता है। आरण्यकों आदि को परेशानी हो सकती है, वे अपनी भूख को शान्त ७.सूत्र १६ करने के लिए तीतर, बटेर आदि को मारते हैं अथवा अन्य संबल वसुरात्निक गण एवं अवसुरानिक गण के परस्पर संक्रमण के लेते हैं। अतः उनसे भिक्षा ग्रहण करना दोषयुक्त है।
विषय में चार भंग बनते हैं__ अटवी से लौटते समय वे अपना बचा हुआ संबल तथा अन्य १. वसुरालिक गण से वसुरात्निक गण में संक्रमण । कुछ आवश्यक खाद्य सामग्री खैर का गोंद, चूर्ण अथवा फल अपने २. वसुरात्निक गण से अवसुरात्निक गण में संक्रमण । परिवार एवं बच्चों के लिए लाते हैं। भिक्षु के द्वारा ग्रहण कर लिए ३. अवसुरात्निक गण से वसुरात्निक गण में संक्रमण । जाने पर उनके पत्नी, बच्चों आदि के अन्तराय, पारस्परिक कलह, ४. अवसुरात्निक गण से अवसुरानिक गण में संक्रमण । अप्रीति आदि दोष संभव हैं। अतः प्रस्तुत सूत्रद्वयी में अटवी हेतु इनमें तृतीय भंग अनुज्ञात है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि प्रस्थित एवं अटवी से प्रतिनिवृत्त आरण्यकों से भिक्षा-ग्रहण का विशुद्ध आलम्बनों से विधिपूर्वक गुरु-अनुज्ञा से एक वसुरात्निक गण प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
से दूसरे वसुरात्निक गण में संक्रमण करना उपसंपदा है, वह भी शब्द विमर्श
अनुज्ञात है।८ विशुद्ध आलम्बनों के अभाव में स्वेच्छापूर्वक वर्णधय-वनस्पति, काष्ठ आदि के लिए वन में जाने वाले। प्रथम भंग से भी संक्रमण करना सबलदोष है। उत्तरज्झयणाणि
१. निभा. गा. ५४११-तव्वज्जियं अंतरुच्छुयं होइ। २. वही-पव्वसहितं तु खंडं। ३. वही, गा. ५४१२-चोयं तु होति हीरो। ४. वही, गा. ५४११-मोयं पुण छल्लिपरिहीणं।
वही, गा. ५४१२-सालगं पुण तस्स बाहिरा छल्ली
वही, गा. ५४११-डगलं चक्कलिछेदो। ७. वही, गा. ५४१६, ५४१७ ८. वही, गा. ५४१८ ९. वही, भा. ४ चू.पृ. १६-वणं धावंतीति वण्णंधा, आरण्यं वणार्थाय
धावंतीत्यर्थः।
१०. वही, गा.५४२० ११. वही, गा. ५४२१-बुसि संविग्गो भणितो। १२. वही, गा. ५४२२ १३. वही, गा. ५४२९ १४. वही, गा. ५४३७ १५. वही, गा. ५४४५ १६. वही, गा. ५४४९ १७. वही, ४ चू.पृ. ७३ १८. वही, पृ.७३-कारणे पुणो पढमभंगे उवसंपदं करेति । १९. दसाओ २/३ (८)