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आमुख
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निसीहज्झयणं प्रदत्त प्रायश्चित्त को आधा करके (३०+२=१५) उसमें उसके पूर्ववर्ती प्रायश्चित्त (२५ दिनरात) का आधा (१२४, दिनरात) मिला देने पर जो प्रायश्चित्त दिया जाये, वह लघु प्रायश्चित्त है।
सान्तरदान तथा अकर्कश काल में अकर्कश तप भी लघु प्रायश्चित्त कहलाते हैं। प्रस्तुत उद्देशक में दो सूत्रों में प्रायश्चित्त की विपरीत प्ररूपणा एवं दो सूत्रों में उसके विपरीत दान का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। तदनन्तर सूत्रषट्क में परिहारतपःविषयक संभोज पद का प्रायश्चित्त कथन हुआ है। इसी प्रकार उद्घातिक, उद्घातिक हेतु एवं उद्घातिक संकल्प
आदि के द्वारा प्राचीन प्रायश्चित्त परम्परा के विषय में अवबोध प्राप्त होता है। भाष्य और चूर्णि में प्रस्तुत संदर्भ में सम्पूर्ण परिहारतप की समाचारी का विस्तृत निरूपण मिलता है।
शैक्ष के ममत्व के कारण भिक्षु किस प्रकार शैक्ष का अपहरण करता है, किस प्रकार वह अन्य आचार्य के प्रति किसी शैक्ष के मन में विपरीत भाव भरता है, किस-किस प्रकार से स्वयं के आचार्य, उपाध्याय के प्रति व्यवहार करता है-इत्यादि प्रसंगों का भाष्य एवं चूर्णि में बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है।
१. स्था. वृ. प. १५२,१५३-मासो अर्द्धन छिन्नो जातानि पञ्चदशदिनानि, ततो मासापेक्षया पूर्व तपः पञ्चविंशतितम, तदद्ध सार्धद्वादशकं, तेन
संयुतं मासाद्धं जातानि सप्तविंशतिदिनानि सा नीत्येवं कृत्वा यद् दीयते तद्लघुमासदानम्, एवमन्यान्यपि, एतन्निषेधादनुद्घातिमं तपो।