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टिप्पण
सूत्र १ १. राजपिण्ड (रायपिंड)
प्रस्तुत आगम के आठवें उद्देशक में राजपिण्ड से संबंध रखने वाले छह सूत्र तथा नवें उद्देशक में इक्कीस सूत्र हैं। मुख्यतया राजपिण्ड राजकीय भोजन का अर्थ देता है, किन्तु सामान्यतः राजपिण्ड शब्द से राजा के अपने निजी भोजन और राजसत्क भोजन-राजा के द्वारा दिए जाने वाले सभी प्रकार के भोजन, जिनका उल्लेख उपर्युक्त सूत्रों में हुआ है का संग्रह होता है।
निसीहज्झयणं में राजा के तीन विशेषण उपलब्ध होते हैं- १. वह जाति से क्षत्रिय होना चाहिए।
२. वह मुदित–जाति-शुद्ध होना चाहिए। अथवा जो उभय कुल विशुद्ध (उदित कुल एवं वंश में उत्पन्न) होना चाहिए।
३. वह मूर्धाभिषिक्त होना चाहिए।
निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार अपने पूर्ववर्ती राजा के द्वारा मूर्धाभिषिक्त होकर सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित जो राजा राज्य का भोग करता है, उसका पिण्ड अग्राह्य है। शेष राजाओं के लिए विकल्प है-दोष की संभावना हो उनका आहार आदि न लिया जाए, दोष की संभावना न हो तो ले लिया जाए।
राजा के घर का सरस आहार खाते रहने से रसलोलुपता न बढ़ जाए और ऐसा आहार अन्यत्र मिलना कठिन है-यों सोच मुनि अनेषणीय आहार लेने न लग जाएं-इन संभावनाओं को ध्यान में रखकर राजपिण्ड लेने का निषेध किया गया है। यह विधान एषणा शुद्धि के लिए है। निशीथचूर्णिकार ने यहां आकीर्ण दोष को प्रमुख बतलाया है। राजप्रासाद में सेनापति आदि आते जाते रहते है, वहां मुनि के पात्र आदि फूटने की तथा चोट लगने की संभावना रहती है इसलिए राजपिण्ड नहीं लेना चाहिए आदि-आदि।'
दसवेआलियं में राजपिण्ड के साथ 'किमिच्छक' अनाचार का भी उल्लेख मिलता है। किमिच्छक शब्द अनाथपिण्ड, कृपणपिण्ड, वनीपकपिण्ड का अर्थ देता है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम के उपर्युक्त इक्कीस सूत्रों में राजपिण्ड और किमिच्छक दोनों अनाचारों के साथ साथ तत्सदृश अन्य संभावित अनाचारों के प्रायश्चित्त का भी संग्रह हो जाता है। २. सूत्र ३ ____ठाणं में राजपिण्ड का भोग करने वाले को गुरु प्रायश्चित्त योग्य माना गया है। राजा के अन्तःपुर में दंडारक्षिक, द्वारपाल, वर्षधर आदि विभिन्न लोगों का आवागमन रहता है। वहां अनेक कन्याएं एवं युवतियां होती हैं। अनेक प्रकार के गीत, नृत्य आदि के कारण वहां का वातावरण शृंगारप्रधान एवं भोगबहुल होता है। अतः वहां जाने पर भिक्षु के ईर्या, भाषा, एषणा आदि समितियों में स्खलना, पूर्वभोगों की स्मृति एवं कुतूहल के कारण ब्रह्मचर्य की अगुप्ति तथा अन्य अनेक दोष संभव हैं। अतः सामान्यतः भिक्षु को अन्तःपुर से दूर रहना चाहिए। ठाणं में पांच कारणों से राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करना अनुज्ञात माना गया है।' ३. सूत्र ४,५
भिक्षु के लिए राजा के अन्तःपुर में प्रवेश तथा राजपिण्ड का ग्रहण वर्जनीय है। ऐसी स्थिति में अन्तःपुरिका को अन्तःपुर से अशन, पान आदि लाकर देने का कहना अथवा ऐसा कहने वाली की बात को स्वीकार करना भी प्रकारान्तर से पूर्वोक्त विधि का उल्लंघन ही है। साथ ही इससे अभिहत दोष, विषयुक्त या अभिमंत्रित आहार आदि की संभावना तथा भिक्षु के प्रति चोर, पारदारिक आदि की आशंका आदि दोष भी संभव हैं। अतः अन्तःपुरिका से अशन आदि मंगवाना एवं लाए हुए को स्वीकार करना दोनों ही राजपिण्ड ग्रहण के समान प्रायश्चित्त वाले कार्य हैं।
१. निसीह. ८/१४-१८ तथा ९/१,२,६,१०,११,१३-१९, २१
२. निभा. गा. २४९७ तथा चूर्णि ३. वही, गा. २५०४-२५०७ ४. दसवे. ३/३ ५. वही, ३/३ का टिप्पण
६. ठाणं ५/१०१ का टिप्पण (पृ. ६२६) ७. (क) निभा. गा. २५१५,२५१७,२५१८
(ख) तुलना हेतु द्रष्टव्य ठाणं ५/१०२ का टिप्पण (टि. ६५) ८. ठाणं ५/१०२ ९. निभा. गा. २५२२-२५२३