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१. सूत्र १-११
जिस सचित्त वृक्ष के स्कन्ध का विस्तार हाथी के पैर जितना होता है, उसके चारों ओर रत्नि (बद्धमुष्टि हाथ) प्रमाण भूमि सचित्त होती है।' अतः वहां खड़े होने, बैठने, सोने आदि क्रियाओं का निषेध किया गया है। निशीथभाष्य और चूर्णि में इसके व्यावहारिक कारणों का भी उल्लेख है ।
वृक्ष के दो प्रकार होते हैं-परिगृहीत और अपरिगृहीत। परिगृहीत वृक्ष के पुनः तीन प्रकार होते हैं
टिप्पण
१. देवता द्वारा परिगृहीत- देवता द्वारा परिगृहीत (अधिकृत) वृक्ष को भिक्षु पास खड़ा होकर देखता है तो उसका अधिपति देव कुपित हो सकता है। यदि वह देवता क्रोध आवेश प्रकृति का (दुष्ट स्वभाव वाला) है तो मुनि को हप्तचित्त, क्षिप्तचित्त आदि बना सकता है।
२. मनुष्य द्वारा परिगृहीत- जिस मनुष्य का उस वृक्ष पर अधिकार है, वह मुनि को पीट सकता है, चोट पहुंचा सकता है।
३. तिथंच द्वारा परिगृहीत- जिस पशु का उस वृक्ष पर अधिकार है, वह उस पर आक्रमण कर सकता है।
यह वृक्ष देव, मनुष्य आदि किसी से परिगृहीत नहीं है, तब भी वृक्ष के ऊपर से ढेला आदि गिरने से चोट की संभावना रहती है। मुनि पक्षियों की बींट से लिप्त हो सकता है। सहसा वृक्ष का सहारा ले ले तो उसके शरीर की उष्मा आदि लगने से वनस्पतिकाय की
१. निभा. गा. १८९६ तथा चूर्णि
२. वही, गा. १९०३, १९०४
३. वही, गा. १९०५
४.
,
वही, भा. २, चू.पू. ३०७ मूलं क्यहो । पाइय-मूल-पास, निकट ।
५.
६. निभा. २, चू. पृ. ३०७ - आलोयणं सकृत् ।
७. वही अनेकशः प्रलोकनं ।
८. वही, पृ. ३०९ - ठाणं काउस्सगो ।
९. वही, भा. ३, चू. पृ. ३७७ - सेज्जा सयणिज्जं ।
१०. वही सिहिका सझायकरणं ।
११. (क) वही, गा. १९०९ - ठाणं णिसीयण तुयट्टणं वा वि ।
(ख) वही, भा. २ चू. पृ. ३०९ - वीसम- द्वाण - णिमित्तं णिसीहिया । १२. वही, ३, पृ. ३२० - चेतेइ करेति ।
विराधना होती है। अतः संयमविराधना और आत्मविराधना से बचने हेतु सचित वृक्ष के अवग्रह में बैठने, खड़े होने, सोने, स्वाध्याय आदि क्रियाएं करने का निषेध किया गया है। शब्द विमर्श
१. रुक्खमूल-वृक्ष के पास। मूल का अर्थ है पास। २. आलोकन - एक बार देखना।'
३. प्रलोकन - बार-बार देखना । "
८
४. स्थान-स्थान, ऊर्ध्वस्थान (खड़ा होना) ५. शय्या - सोना । ९
६. निषीधिका-बैठना। यद्यपि यहां निसीहियं पद का प्रयोग है जिसका अर्थ है स्वाध्याय करना । " किन्तु प्रस्तुत आलापक स्वाध्याय से सम्बद्ध अनेक अन्य सूत्र है अतः यहां इसका अर्थ है निषीदन बैठना, विश्राम के लिए रुकना।"
७. चेएति (चेअ) - करता है । १२
८. स्वाध्याय - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा आदि । १३
९. उद्देश - नया पढ़ना- यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए। गुरु के इस निर्देश को उद्देश कहा जाता है। T
१०. समुद्देश- अस्थिर को स्थिर करने का निर्देश । १५ ११. अनुज्ञा स्थिरीभूत को धारण करने का निर्देश। " १२. वाचना - अन्य को सूत्रार्थ पढ़ाना । १७ १३. पडिच्छ - ग्रहण करना । १८
१३. वही, भा. २, पृ. ३११ - अणुप्पेहा धम्मकहा पुच्छाओ सज्झायकरणं । १४. (क) वही,
(ख) अनु.वृ. प. ३- इदममध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेषः उद्देशः ।
१५. (क) निभा. २ चू. पृ. ३११
(ख) अनु.वृ. प. ३- तस्मिन्नेव शिष्येण अहीनादिलक्षणोपेतेऽधीते गुरोर्निवेदिते स्थिरपरिचितं कुविंदमिति वचनविशेषः एव समुद्देशः ।
१६. (क) निभा. २ चू. पृ. ३११
(ख) अनु. वृ. प. ३- तथा कृत्वा गुरोर्निवेदिते सम्यगिदं धारपान्यांश्चाध्यापयेदिति तद्वचनविशेषः एवानुज्ञा ।
१७. निभा. २, पृ. ३११ - सुत्तत्थाणं वायणं देति । १८. पाइय-पडिच्छ-ग्रहण करना ।