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उद्देशक ५:टिप्पण
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निसीहज्झयणं
१९. परिवर्तना-पूर्व अधीत सूत्रार्थ का अभ्यास करना। २.सूत्र १२
गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक को जीवहिंसा का त्याग नहीं होता। अतः वे तप्त अयोगोलक के समान सर्वतः जीवोपघाती होते हैं। फलतः उनसे कुछ भी कार्य करवाने से आज्ञाभंग, अनवस्था आदि दोष आते हैं। गृहस्थ से वस्त्र सिलाने पर षट्काय-विराधना, पश्चात्कर्म, अपभ्राजना आदि दोषों की भी संभावना रहती है। ३. सूत्र १३
प्रस्तुत सूत्र में संघाटी के दीर्घसूत्र बनाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। कदाचित संघाटी छोटी हो, उसे बांधने के लिए सूत्र (डोरी) बनाना आवश्यक हो तो तज्जात सूत्र से चार अंगुल प्रमाण डोरियां बनाई जा सकती हैं। दीर्घसूत्र बनाने से प्रतिलेखना में अनेक दोष आने की संभावना रहती है और अधिक लम्बी डोरियां आपस में उलझ जाएं तो सुलझाने में निरर्थक समय एवं शक्ति का व्यय होता है। डोरियां सुलझाते रहने से सूत्रार्थ में बाधा आदि दोष भी संभव हैं। ४. सूत्र १४
कोई भिक्षु बीमार हो जाए और उसे कोई वैद्य चिकित्सा की दृष्टि से नीम, परवल आदि के पत्ते खाने का निर्देश दे, तब प्रश्न उपस्थित होता है कि परवल, बेल, नीम आदि के अचित्त पत्तों को अचित्त जल से धोकर खाने में क्या दोष है? आचार्य कहते हैं-अचित्त जल भी पत्ते आदि को धोकर गिराना पड़ता है, उसमें संपातिम जीवों के गिरने की तथा मरने की संभावना रहती है। यदि नीम, पीपल, परवल आदि के पत्ते सहजरूप से गृहस्थ द्वारा धोए हुए मिल जाएं तो वे ही लेने चाहिए ताकि धोने से जल-प्लावन और उससे होने वाले अन्य दोषों की संभावना न रहे। यदि गृहस्थ के घर सहज में धोए हुए पत्ते न मिलें तो उन्हें औषध रूप में उसी दिन लाकर धोकर उपयोग किया जा सकता है। पत्तों को धो-धोकर खाने से होने वाले दोषों की संभावना से यहां असमाचारी निष्पन्न लघुमासिक प्रायश्चित्त का । विधान है। शब्द विमर्श
संफाणिय-धोकर । ५.सूत्र १५-२२
प्रस्तुत आलापक में औपग्रहिक उपकरणों के प्रत्यर्पण सम्बन्धी १. निभा. भा. २, पृ. ३११-सुत्तमत्थं वा पुव्वाधीतं अब्भासेति
परियट्टेइ। २. वही, गा. ६३३ ३. वही, गा. १९३२,१९३३ ४. वही, गा. १९३१ ५. वही, गा. १९४०-१९४३ (सचूर्णि)
नौ सूत्र हैं। प्रत्यर्पणीय उपकरणों के दो प्रकार हैं-१. शय्यातरनिश्रित तथा २. अन्य गृहस्थ से प्रातिहारिक रूप में गृहीत । पादप्रोञ्छन, दंड, लाठी, अवलेखनिका आदि उपकरण यदि प्रत्यर्पणीय रूप में गृहीत हों तो ग्रहण करते समय भिक्षु 'आज' या 'कल' इस प्रकार काल सीमा निश्चित न करे। क्योंकि शाम को लौटाऊंगा कहकर दूसरे दिन लौटाने और दूसरे दिन लौटाऊंगा कहकर उसी रात को लौटाने पर भिक्षु को मृषावाद का दोष लगता है। फलतः गृहस्थों में अप्रत्यय (अविश्वास), उनके द्वारा खिंसा, उपालम्भ आदि दोषों की संभावना रहती है। इसी प्रकार प्रत्यर्पित शय्यासंस्तारक का पुनः अनुज्ञा लिए बिना उपयोग करने पर अदत्तादान का दोष लगता है, अतः इनका प्रायश्चित्त है-लघुमासिक परिहारस्थान । ६. सूत्र २३
ववहारो में विधान है कि शय्या-संस्तारक को गृहस्थ को सर्वात्मना सौंपने के बाद दूसरी बार अनुज्ञा लिए बिना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को उनका उपयोग करना नहीं कल्पता।' पुनः अनुज्ञा लेकर उनका उपयोग करना विधिसम्मत है। क्योंकि एक बार सौंप देने पर शय्या-संस्तारक उस स्वामी के हो जाते है। पुनः अनुज्ञा लिए बिना उनका परिभोग करने पर अदत्तादान आदि दोषों की संभावना रहती है। अतः यदि उनको पुनः उपयोग में लेना हो तो अनुज्ञापूर्वक ही लेना चाहिए। शब्द विमर्श
अहिट्ठ-अधि उपसर्गपूर्वक ष्ठा धातु का अर्थ है परिभोग करना। ७. सूत्र २४
पाट, कपास, ऊन आदि से सूत कातना गृहस्थ-प्रायोग्य कार्य है। सूत कातने में समय लगाने से मुनि के सूत्रार्थ में बाधा आती है। सूत कातने आदि की क्रिया में संपातिम जीवों तथा वायुकाय आदि की हिंसा का प्रसंग उड्डाह, हस्तोपघात आदि अनेक दोष संभव
८. वेणुदंड अथवा वेत्रदंड (वेणुदडाणि वा वेत्तदंडाणि वा)
वेत्र और वेणु-दोनों बांस के लिए प्रयुक्त होते हैं। अतः शब्दकोशों में इन्हें एकार्थक माना गया है। प्रस्तुत आलापक में वेणु-दंड और वेत्र दंड दोनों शब्दों का साथ-साथ प्रयोग हुआ है। निशीथचूर्णिकार ने दोनों के भेद का निर्देश दिया है-पानी में उगने ६. वही, भा. २ चू.पृ. ३१४-संफाणियत्ति धोविउं। ७. वही, पृ. ३१७-अज्जं वा कल्ले वा छिण्णकालं ण करेति । ८. वही, गा. १९४९ ९. वव. ८/७,९ १०. निभा. भा. २, चू.पृ. ३१९-अहितुति परि जति। ११. वही, गा. १९६६