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________________ १०२ निसीहज्झयणं उद्देशक ५ : सूत्र ८-१४ ठिच्चा सज्झायं समुद्दिसति, समुद्दिसंतं स्वाध्यायं समुद्दिशति, समुद्दिशन्तं वा वा सातिज्जति॥ स्वदते। स्वाध्याय का समुद्देश करता है अथवा समुद्देश करने वाले का अनुमोदन करता है। ८. जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि यो भिक्षुः सचित्तरक्षम्ले स्थित्वा ८. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के पास स्थित होकर ठिच्चा सज्झायं अणुजाणति, स्वाध्यायम् अनुजानाति, अनुजानन्तं वा स्वाध्याय की अनुज्ञा देता है अथवा अनुज्ञा अणुजाणंतं वा सातिज्जति॥ स्वदते। देने वाले का अनुमोदन करता है। ९. जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि यो भिक्षुः सचित्तरक्षमूले स्थित्वा ९. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के पास स्थित होकर ठिच्चा सज्झायं वाएति, वाएंतं वा स्वाध्यायं वाचयति, वाचयन्तं वा स्वदते। स्वाध्याय की वाचना देता है अथवा वाचना सातिज्जति॥ देने वाले का अनुमोदन करता है। १०. जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि यो भिक्षुः सचित्तरुक्षमूले स्थित्वा १०. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के पास स्थित होकर ठिच्चा सज्झायं पडिच्छति, पडिच्छंतं स्वाध्यायं प्रतीच्छति, प्रतीच्छन्तं वा स्वाध्याय को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण वा सातिज्जति॥ स्वदते। करने वाले का अनुमोदन करता है। ११. जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि यो भिक्षुः सचित्तरुक्षमूले स्थित्वा ११. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के पास स्थित होकर ठिच्चा सज्झायं परियट्रेति, परियटेंतं स्वाध्यायं परिवर्तयति, परिवर्तयन्तं वा स्वाध्याय का परिवर्तन करता है अथवा वा सातिज्जति॥ परिवर्तन करने वाले का अनुमोदन करता स्वदते। संघाटी-पद संघाडि-पदं १२. जे भिक्खू अप्पणो संघाडिं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सिव्वावेति, सिव्वावेंतं वा सातिज्जति ॥ संघाटी-पदम् यो भिक्षुः आत्मनः संघाटीम् अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा सेवयति, सेवयन्तं वा स्वदते । १२. जो भिक्षु अपनी संघाटी (पछेवड़ी/उत्तरीय वस्त्र) अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से सिलवाता है अथवा सिलवाने वाले का अनुमोदन करता है। १३.जे भिक्खू अप्पणो संघाडीए दीह- यो भिक्षुः आत्मनः संघाट्याः दीर्घसूत्राणि १३. जो भिक्षु अपनी संघाटी के दीर्घसूत्र बनाता सुत्ताई करेति, करेंतं वा करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते । है-लम्बी डोरियां (चार अंगुल प्रमाण से सातिज्जति॥ अधिक) बनाता है अथवा बनाने वाले का अनुमोदन करता है। पलाश-पद पलास-पदं पलाश-पदम् १४. जे भिक्खू पिउमंद-पलासयं वा यो भिक्षुः पिचुमन्दपलाशकं वा पडोल-पलासयं वा बिल्ल-पलासयं पटोलपलाशकं वा बिल्वपलाशकं वा वा सीओदग-वियडेण वा शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उसिणोदग-वियडेण वा संफाणिय- 'संफाणिय संफाणिय' आहरति, आहरन्तं संफाणिय आहारेति, आहारेंतं वा वा स्वदते। सातिज्जति॥ १४. जो भिक्षु नीम के पत्ते, परवल के पत्ते अथवा बेल के पत्ते को प्रासुक शीतल जल से अथवा प्रासुक उष्ण जल से धो-धोकर खाता है अथवा खाने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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