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आमुख
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निसीहज्झयणं कौनसी, कब, कितनी दोषपूर्ण है-इसका सविस्तर चालना-प्रत्यवस्थान करते हुए भाष्यकार ने एक निष्कर्ष प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र भी चिन्तनीय है
तम्हा सव्वाणुण्णा, सव्वनिसेहो य णत्थि समयम्मि।
आयव्वयं तुलेज्जा, लाभाकंखि व्व वाणियओ॥' प्राचीन काल में सभी संविग्न भिक्षुओं का एक संभोज था। राज्याश्रय के कारण आर्यसुहस्ती एवं उनके शिष्यों में पनप रहे आचारशैथिल्य के कारण आर्यमहागिरि ने उनका संभोजविच्छेद कर दिया। आर्यसुहस्ती के द्वारा मिच्छामि दुक्कडं पूर्वक स्वयं की भूल स्वीकार किए जाने के बाद उनका पुनः संभोज स्थापित हुआ। संभोज-प्रत्ययिक कर्म बन्धन नहीं होता-ऐसा कहने वाला भिक्षु प्रायश्चित्तभाक् है-सूत्र में समागत संभोज शब्द की व्याख्या में संभोज का भेदोभेद सहित जितना सुविस्तृत ऐतिहासिक एवं ज्ञानवर्धक वर्णन भाष्य एवं चूर्णि में समुपलब्ध होता है, अन्यत्र दुर्लभ है।
इसी प्रकार नवनिवेशित गांव, नगर आदि भिक्षार्थ जाना, मुख आदि शरीर के अवयवों तथा पत्र, पुष्प आदि वृक्षावयवों से वीणा आदि वाद्य-यन्त्रों तथा अन्य इसी प्रकार के विकारोत्पादक शब्दों को उत्पन्न करना आदि निषिद्ध पदों का भी प्रस्तुत उद्देशक में प्रायश्चित्त-कथन किया गया है।
१. निभा. गा. २०६७