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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक के मुख्य प्रतिपाद्य हैं-प्रातिहारिक पादप्रोच्छन का यथाकाल प्रत्यर्पण न करने का प्रायश्चित्त, रजोहरण संबंधी विविध निषेधों एवं सचित्त वृक्षमूल में स्थान, शयन आदि विविध क्रियाओं को करने का प्रायश्चित्त, सदोष शय्या, संभोज-विधि का अतिक्रमण एवं धारणीय उपधि को धारण न करने–परिष्ठापन करने, शरीर के अवयवों आदि के द्वारा वीणा आदि वादिन शब्दों को उत्पन्न करने का प्रायश्चित्त आदि।
उपधि के दो प्रकार होते हैं औघिक और औपग्रहिक। रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका ये सर्वसामान्य औधिक उपधि हैं क्योंकि पाणिपात्र जिनकल्पिक भी उन्हें धारण करते हैं। पादप्रोञ्छन औपग्रहिक उपधि है। प्रायः प्रत्येक साधु अपना अपना पादप्रोञ्छन रखते थे, पर कदाचित् किसी के पास पादप्रोज्छन न हो-ऐसा भी संभव था। इसीलिए आचारचूला में कहा गया 'भिक्षु अथवा भिक्षुणी उच्चारप्रस्रवण की क्रिया से उद्बाधित हो और स्वयं का पादप्रोञ्छन न हो तो साधर्मिक से पादप्रोञ्छन की याचना करे। वह प्रातिहारिक रूप में शय्यातर अथवा अन्य गृहस्थ से भी लाया जा सकता है। निशीथचूर्णि के अध्ययन से ऐसा ज्ञात होता है कि गृहस्थ भी प्राचीन काल में पादप्रोञ्छन रखते थे।
प्रस्तुत आगम के द्वितीय उद्देशक में दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन के विषय में आठ सूत्र आए हैं। उसमें दारुडयुक्त पादप्रोञ्छन के निर्माण, ग्रहण, धारण, वितरण, दान एवं परिभोग का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत उद्देशक में प्रातिहारिक एवं शय्यातरसत्क पादप्रोञ्छन को छिन्नकाल (निश्चित काल) के लिए ग्रहण कर उसके पूर्व एवं पश्चात् प्रत्यर्पण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इसी उद्देशक में रजोहरण के विषय में एकादशसूत्रीय आलापक है। संभवतः रजोहरण के विषय में एक स्थान पर युगपत् इतने निर्देश सम्पूर्ण आगम साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते। रजोहरण प्रमार्जन का साधन है। उस पर बैठना, लेटना अथवा उसे सिरहाने रखना प्रायश्चित्ताह कार्य है। भाष्यकार ने रजोहरण सम्बन्धी प्रायः सभी निषिद्ध कार्यों के लिए आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व एवं विराधना-इस दोष चतुष्टयी का कथन किया है।
प्रस्तुत उद्देशक का प्रथम प्रतिपाद्य है-वित्त रुक्षमूल-पद। निशीथभाष्य के अनुसार जिस सचित्त वृक्ष का स्कन्ध हाथी के पैर जितना मोटा हो, उसके सब ओर (सर्वतः) रतनी प्रमाण भूमि सचित्त होती है। भिक्षु को सचित्त वृक्ष के स्थित होकर आलोकन-प्रलोकन, स्थान, शय्या एवं निषद्या, आहार-नीहार एवं स्वाध्याय संबंधी उद्देश, समुद्देश आदि कोई भी क्रिया करना नहीं कल्पता। प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने उन सभी संभावित दोषों एवं कष्टों की चर्चा की है जो देवतापरिगृहीत, मनुष्यपरिगृहीत एवं तिर्यंचपरिगृहीत तथा अपरिगृहीत वृक्ष के नीचे खड़े होने, बैठने तथा स्वाध्याय आदि करने से संभव हैं।
___ जीवन-निर्वाह के लिए तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं-आहार, उपधि एवं उपाश्रय (स्थान) । निर्दोष आहार, उपधि एवं उपाश्रय संयम में उपकारी होते हैं। आहार एवं उपधि के संदर्भ में प्रायः तीन प्रकार के दोषों का अभाव ज्ञातव्य है-उद्गम, उत्पादना एवं एषणा। प्रस्तुत उद्देशक में औदेशिक, प्राभृतिकायुक्त एवं परिकर्मयुक्त शय्या में अनुप्रविष्ट होने वाले भिक्षु के लिए उद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
भाष्यकार ने प्रस्तुत प्रसंग में विविध प्रकार की शय्या का भेदोपभेद सहित वर्णन किया है। कौन सा उत्तरगुण परिकर्म अल्पकाल के लिए परिहार्य है और कौनसा सर्वकाल के लिए? इसकी मीमांसा करते हए औद्देशिक एवं स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या में : १. आचू. १०/१
३. निभा. गा. १८९६ २. निभा. २ चू.पृ. ३१७