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________________ 258 दीक्षा से पूर्व प्रतिज्ञा पत्र का प्रारूप : मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि - 1. मैं प्रातः स्मरणीय महान आचार्य कुन्दकुन्द एवं चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर की परम्परा के गौरव को सदा मन-वचन काय से सुरक्षित रखूँगा। मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे इस महान परम्परा का गौरव कम होता हो । 2. 3. 4. 5. जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा 6. मैं आचार्य महाराज के अनुशासन का हृदय से पालन करूँगा । मैं अपने दीक्षा गुरु के आदेश के बिना संघ का त्याग नहीं करूँगा । एवं अन्य आचार्य संघ में सम्मिलित नहीं होऊँगा । धर्म प्रचार महान प्रयोजन के लिए गुरु महाराज की अनुमति से संघ से पृथक विहार करने की स्थिति में भी एकल विहार नहीं करूँगा, बल्कि मैं कम से कम दो क्षुल्लकों या इससे ऊपर के पदधारी त्यागियों के साथ ही विहार करूँगा । मैं सतत् स्वाध्याय द्वारा अपने शास्त्र ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न करता रहूँगा । अन्त में, मैं भ्रमण श्रमणी, श्रावक श्राविका चतुः विघ संघ से निवेदन करूँगा कि वह मुझे दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करें। इसमें विनीत रूप में सर सेठ भागचन्द सोनी, एवं बाबूलाल पाटोदी हैं, एवं उत्तर देने का पता जैनमठ, श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) है । 291 उपर्युक्त प्रस्ताव इतने तथ्यहीन एवं अविचारणीय हैं, जो सम्पूर्ण दिगम्बर श्रमणों के चारित्रिक एवं बौद्धिक क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। संघ की व्यवस्था का गुस्तर- भार आचार्य का होता है और वही अन्य सघ के आचार्यों से निवेदन कर सकता है। उपर्युक्त प्रस्तावों में मुनि विद्यानन्द के प्रयास से तो इस कार्य के सम्पादन की बात कही गयी, तथा विनीत के रूप में बाबूलाल पाटौदी, नीरज जैन आदि जैन धर्म से अनभिज्ञ श्रावक थे यहां तक कि उक्त प्रस्ताव में कुछ जैन गृहस्थ विद्वानों का तो कोई समर्थन ही नहीं था; क्योंकि वे जानते थे कि ऐसे प्रस्ताव तथ्यहीन एवं निरर्थक ही सिद्ध होने वाले हैं, और वही हुआ । द्वितीय, चारित्रिक प्रतिबन्धनों में एकलविहार पर चर्चा की गयी, क्या श्रमणों के परिग्रह पर विचार एवं आदेश अपेक्षित नहीं था? क्या श्रमणों की आवास चर्या, आहार चर्या, गमनागमन आदि अनेक चारित्रिक पक्षों पर विचार अपेक्षित नहीं था? एकलविहार पर प्रतिबन्ध के बावजूद मुनि विद्यानन्द स्वयं एकलविहारी यह एक कैसी हास्यापद स्थिति थी । इसी कारण यह सब असफल रहा। जैन आचार्य पद की प्रतिष्ठापन विधि आचार्य करते हैं न कि श्रावकगण । आज सर्वत्र श्रावकगण ही मुनि को आचार्य पद देते हैं, एवं आचार्य पद पर ही श्रमण देहावसान करता है जो कि अच्छी परम्परा नहीं मानी जाती है, क्या इस पर आचार संहिता में विचार अपेक्षित नहीं था । आचार्य धर्मसागर को समाज ने आचार्य पद दिया था, और अभी मुनि अजित सागर को समाज ने ही दो- दो बार सीकर एवं उदयपुर में आचार्य पद दिया । तथा आचार्य अजितसागर के अवसान के बाद उनके संघ में आचार्य
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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