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________________ सदोष श्रमण 259 पद को लेकर शर्मनाक विवाद हुआ। जो उनके संघ के वरिष्ठतम साधु श्रेयांस सागर व वर्धमान सागर के मध्य था। आचार्य पद प्राप्ति के लिए आज का नामांकित जैन साधु समाज के समक्ष किस हद तक सिंह से श्वानवृत्ति तक की यात्रा तय कर सकता है - यह दुःखद क्षण भी देखने को मिला। समाज में अपनी जोड-तोड बैठाकर 13 जून, 90 को श्रेयांस सागर ने आचार्य पद की जंग जीत ली, तो वर्धमान सागर ने भी 24 जून सन्, 90 को यह पद हासिल कर लिया। परन्तु ऐसी घटनाएं अपने गुरुओं की अकर्मण्यता, अनाचार्यत्व, सुसुप्त- विवेक व पद से चिपके रहने की प्रवृत्ति को सूचित कर ही देती हैं। मुनि विद्यानन्द को भी अभी समाज ने ही आचार्य पद दिया है-यह सब जैनागम सम्मत नहीं है। एक विरुद्ध परम्परा है। श्वेताम्बरीय श्रमणों ने भी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एवं छोटे-छोटे फिरकों को फिर से एक श्रृंखला में व्यवस्थित करने के लिए श्री श्वे. स्था. "जैन कान्फरेंस ने वृहदसाधु सम्मेलन कराने के लिए अथक प्रयास किये, और परिणामस्वरूप विक्रम सं.1980 में अजमेर में स्थानकवासी समाज का पहला सम्मेलन हुआ। और उसमें बड़े आचार्यों एवं मुख्य मुनिवरों ने भाग लिया। एक आचार्य परम्परा, एक साधु समाचारी आदि श्रमण जीवन से सम्बन्धित विषयों पर खुलकर चर्चा की गयी, और स्व.आचार्य श्री जवाहरलालजी ने संगठन के लिए एक योजना रखी, जिसका सभी ने एक स्वर से स्वागत किया, और उसे युगानुरूप बताई, परन्तु कुछ कारणों से वह कार्यरुप में परिणत नहीं हो सकी और साम्प्रदायिक झगड़े ज्यों के त्यों बने रहे। इसके पश्चात् सादड़ी में दूसरा, सोजत में तीसरा एवं मानासर ( बीकानेर ) में चौथा सम्मेलन हुआ।292 श्वे. सम्प्रदाय के इस श्रमण सम्मेलन में प्रसिद्ध जौहरी एवं विद्वान श्री दुर्लभजी जिन्होंने "सन्तोकबा दुर्लभ हास्पीटल" जयपुर का निर्माण कराया है, की मुख्य भूमिका थी उन्होंने "साधु सम्मेलन का इतिहास" पुस्तक में सम्मेलन के आवश्यकता की विस्तृत ऐतिहासिक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा कि "सुदूर भविष्य में एक और रोग भी उपजता जान पड़ता है। इस रोग से बचने के लिए भी अभी से काफी प्रयत्न करने की आवश्यकता है। यह रोग और कुछ नहीं, जड़ पूजा ही है। कच्छ प्रदेश के अनेक भागों में, मृत साधुओं के फोटो वन्दन किये जाते हैं और उनको धूप-दीप आदि किये जाते हैं। तपस्वी मुनि के चरण- चिन्हों की पूजा किसी से छिपी नहीं है। देह- मुक्त साधुओं के नाम पर, ध्वजादिक का चित्रण भी देखा गया है। झालावाड़ में पाट की पूजा होती है, कहीं-कहीं साधु के अग्नि संस्कार के बाद उसी जगह समाधि मन्दिर बनाये या चरण पादुका की ही स्थापना करने की बात भी सुनी जाती है। क्या यह सब, लोकाशाह तथा पूर्वाचार्यों का प्रत्यक्ष अपमान नहीं है, ऐसा कोई कह सकता है ? अत्यन्त लज्जा की बात है कि हम लोगों की ही आँखों पर पट्टी बाँधकर हमें उल्टी दिशा में घुमाया जाता है। इसलिए, साधुओं को यथा सम्भव शीघ्र और यथोचित प्रबन्ध करना चाहिए।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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