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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह- -भूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं । 254 सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के वहाने विकथाएं करते हैं । चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते - खरीदते हैं। उच्चाटन करते और वैद्यक, यंत्र, मंत्र, गंडा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं । इसी ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए रोकते हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं, और चेलों के लिए एक दूसरों से लड़ मरते हैं। 282 प्रकार का विस्तृत वर्णन 12 वीं सदी में जिनबल्लभ सूरि ने संघ पट्टक में चैत्यवासियों की स्थिति का किया है। श्वे. आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित उपर्युक्त भ्रष्टाचार सम्पूर्ण रूप से आज भी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर श्रमण संघ में पूर्णतः व्याप्त है। तथा अब तो ये शिथिल श्रमण किसी प्रकाशक विशेष के प्रकाशन के वहिष्कार की आड़ में सत्साहित्य के प्रकाशनों के वहिष्कार का श्रावकों को आदेश तक देते हैं, ऐसे पत्र छपवाकर मन्दिरों में लगवाते हैं । फिर भी अपने को चारित्र चक्रवर्ती मानते हैं। इन्हें यह भी पता नहीं है कि ये भारतीय संविधान में नागरिकों को प्राप्त "मौलिक अधिकार" का हनन कर देशद्रोही हैं। फिर भी इन्हें श्रमण मानकर इनके भक्त इन्हें पूजते हैं । नवीं शती के आचार्य गुणभद्र के समय दिगम्बर मुनियों की प्रवृत्ति नगरवास की ओर विशेष बढ़ रही थी, इसकी कटु आलोचना करते हुए "आत्मानुशासन" में वे कहते हैं कि "जिस प्रकार इधर-उधर से भयभीत मृग रात्रि में वन को छोड़कर गाँव के समीप आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वन को छोड़ गाँव के समीप रहने लगे हैं। यह खेद की बात है।' 283 बारहवीं सदी के पंडित प्रवर आशाधर ने "अनगार धर्मामृत" के दूसरे अध्याय में इन चैत्यवासी नग्न साधुओं को लक्ष्य करके कहा कि " तथा तीसरे प्रकार के साधु वे हैं, जो द्रव्यजिनलिंग को धारण करके मठों में निवास करते हैं, और मठों के अधिपति बने हुए हैं और म्लेच्छों के समान आचरण करते हैं। 284 वि.सं. 1294 में श्वेताम्बर आचार्य महेन्द्रसूरि ने शतपदी नामक ग्रन्थ बनाया । उन्होंने उसके "दिगम्बर मत विचार" वाले प्रकरण में दिगम्बर श्रमणों की (भ्रष्ट ) स्थिति का वर्णन किया है। जिसके अनुसार उस समय दिगम्बर साधु मठों में रहते थे, अपने लिए पकाया ●
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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