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________________ सदोष श्रमण 255 हुआ (उदिदष्ट) भोजन करते थे, एक ही स्थान पर महीनों रहते थे, शीतकाल में अंगीठी का सहारा लेते थे, पयाल के बिछोने पर सोते थे, तेल मालिश कराते थे। सर्दी के मारे जिनमन्दिरों के गूढ मण्डप (गर्भालय, तलघर ) में रहते थे। मंत्र, तंत्र, ज्योतिष आदि विद्याओं का उपयोग करते थे।" इस 10-12 सदी में श्रमणों में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा में था। नग्न भट्टारक कुमुदचन्द्र पालकी पर बैठते थे, उन पर छत्र लगा हुआ था।285 इन सब भ्रष्टाचारों से प्रभावित होते हुए उनको वैध करार देते हुए भट्टारक श्रुतसागर ने तत्वार्थसूत्र की संस्कृत टीका में "द्रव्यलिंगी मुनि शीतकाल में कम्बल आदि ले लेते हैं, और दूसरे समय में उन्हें त्याग देते हैं।286 इस रूप में साहित्यिक रूप से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन दिया। फिर तो श्रमण खेती कराने लगे, दान लेने लगे, राजनीति में भाग लेने लगे। जो कि आज तक प्रचलित है। आज के लगभग सभी साधु दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में ; मन्दिर, धर्मशालाओं, तलघरों में शहर के मध्य रहते हैं, उद्दिष्ट आहार लेते हैं। विमलसागर का संघ तो मोटरगाड़ी लेकर चलता है, मन्त्र- तन्त्र करते हैं, दिन में भी सोते हैं। सर्दियों में पयाल का उपयोग करते हैं। आचार्य धर्मसागर और उन का संघ तो समयसारप्रवचनसार आदि सत्साहित्य को पढ़ने से रोकता है, एवं इनका मन्दिरों से निष्कासन का आदेश देते हैं। क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि कुदेवों को पूजते हैं। आन्तरिक कलह होती है जिसके वजह से उनके अवसान के बाद उनके संघकेकर्ड टकडे हो गये। इसी प्रकार के संघों में रात्रि में मालिश होती है। इसके अलावा इन भ्रष्टाचारों का विरोध करने वालों को ये मारने पीटने की धमकियाँ देते हैं।287 परन्तु इन घटनाओं को अधिकांश जैन पत्रकार सामाजिक भय एवं लोकापवाद के भय से प्रकाशित नहीं करते हैं। तथा इन घटनाओं को रोकने का प्रयास भी नहीं करते हैं, अपितु इनको जिनलिंग मानकर कुछ विद्वत् समाज पूजती है, अतः यह भ्रष्टाचार अब अपने पूर्ण यौवन के साथ जैन धर्म/समाज में कोढ के रूप में फैल रहा है। संसार में सर्वोत्कृष्ट त्याग के उदाहरण रूप में प्रस्तुत की जाने वाली इस जैन साधु चर्या ने वर्तमान में किस तरह से भोग के साथ में गठबंधन कर रखा है, यह वर्तमान कालीन अधिकांश साधुओं में देखने के लिए अत्यधिक विवेक की भी आवश्यकता नहीं है। त्याग के गर्भ से प्रसूत हो रहे भोग की शैशव कालीन किलकारियाँ किसी से अनजान नहीं है। इसका अभी कोई उपचार नहीं हो रहा है। इन भ्रष्टाचारों को उपगूहन अंग का बहाना देकर छिपाकर मानो सत्य श्रमण धर्म का ही उपगूहन किया जा रहा है। इसके अलावा एकल विहार इस युग की नयी परम्परा ही चल पड़ी है।आगम में दो मुनि को एकल विहार स्वीकृत है वह भी दूसरे आचार्य के समीप तक जाने की स्थिति में है। परन्तु आज मुनि विद्यानन्द अत्यन्त अकेले भ्रमण करते हैं। महानगरों के मध्य रहते हैं।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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