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सदोष श्रमण
के प्रति अविश्वास होता है । अतः मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी श्रमणों को वन आदि, एकान्तादि स्थान में रहना श्रेयस्कर है। जैनागम में भी इसी कारण वन में ही रहने का विधान भी है । परन्तु जब श्रमणों का कुछ वर्ग शहरों में रहने लगा, और भक्तों ने कोई आपत्ति नहीं की, तो कालान्तर में श्रमण वर्ग शहर में रहने का अपना अधिकार सिद्ध करने लगे। क्योंकि शिथिलता एक अमर बेल है, जो जल्दी फैलती और पनपती है उसे तो थोड़ा सा अवलम्बन चाहिए । कालान्तर में चैत्यवासी श्रमण अपना यह अधिकार मान बैठे और चैत्यवास से आगे शहर के मध्य धर्मशाला, मन्दिरों पर उनका जन्म सिद्ध अधिकार - सा हो गया। कुछ श्रावक वर्ग ने श्रमणों की इस परिणति को ही मूलरूप मानकर लगभग स्वीकृति दे दो ।
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दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों की प्राचीन परम्पराएं चैत्यवास की कदापि समर्थक नहीं रहीं, दोनों ही वनवास के ही पोषक रहे, परन्तु पश्चातवर्ती शिथिलाचारी कुछ आचार्यों ने बढ़ती हुयी चैत्यवास की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया। जबकि प्रारम्भ से सल्लेखना आदि के समय शहर के बाहर स्थित चैत्यवास का विधान था । चैत्यवास की प्रवृत्ति के कारणों पर स्पष्टतः प्रकाश डालते हुए डॉ. हीरालाल जी जैन लिखते हैं कि - "चैत्यवास की प्रवृत्ति आदितः सिद्धान्त के पठन-पाठन व साहित्य सृजन की सुविधा के लिए प्रारम्भ हुयी होगी, किन्तु धीरे-धीरे वह एक साधुवर्ग की स्थायी जीवन - प्रणाली बन गई, जिसके कारण नाना मंदिरों में भट्टारकों की गद्दियाँ व मठ स्थापित हो गये। इस प्रकार 281 भट्टारकों के आचार में शैथिल्य व परिग्रह अनिवार्यतः आ गया।
विक्रम की आठवीं शती के प्रसिद्ध दार्शनिक श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने "संबोध प्रकरण" के गुर्वाधिकार में मठवासी साधुओं के भ्रष्टाचार को प्रस्तुत करते हुए कहा कि
"ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं, पूजा करने का प्रारम्भ करते हैं, देव द्रव्य का उपभोग करते हैं, जिनमंदिर और शालाएं चिनवाते हैं। रंगबिरंगे धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आर्यिकाओं द्वारा लाए गये पदार्थ खाते हैं, और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं। जल, फल, फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं। दो-तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं।
ये मुहुर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं, ज्योनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिए खुशामद करते और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते ।
स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना-प्रतिक्रमण कराते हैं। स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते, और इत्र - फुलेल का उपयोग करते हैं।