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________________ 248 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा आचार्य सल्लेखना कभी अपने संघ में नहीं करते हैं। अपने संघ में सल्लेखना करने से होने वाले दोषों को बतलाते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि-"आचार्य, आराधना के निमित्त परगण की इच्छा मन में धारण करते हैं। स्व-संघ में रहने से आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुख, विषाद, खेद वगैरह, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं। जब आचार्य अन्य गण में जाते हैं, तब उस गणस्थ मुनियों को वे उपदेश-आज्ञा नहीं करते, जिससे उनके द्वारा आज्ञा भंग का प्रसंग नहीं आता है। और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाए तो भी "इन पर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है, जो कि ये मेरी आज्ञा मानें" ऐसा विचार कर उनको वहाँ असमाधि दोष उत्पन्न नहीं होता है। अथवा अपने संघ में क्षुल्लकादि मुनि, कलह, शोक, सन्तापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्य की अपने संघ के प्रति ममता होने से चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जाएगी। समाधि-मरण उद्यत आचार्य को भूख-प्यास, वगैरह का दुख सहन करना चाहिए। परन्तु वे अपने संघ में रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थों की याचना करेंगे, अथवा स्वयं आहारादि का सेवन करेंगे, और भय व लज्जा रहित होकर छोड़ी हुयी अयोग्य वस्तुओं का भी ग्रहण करेंगे। स्वगण में रहने वाले आचार्यों को ये दोष होंगे, तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय तथा प्रवर्तक मुनि हैं उन्हें भी स्वगण में रहने से ये दोष होंगे। संसार भीरू, पाप भीरू और आगम के ज्ञाता आचार्य के चरणमूल में ही वह यति समाधि मरणोद्यमी होकर आराधना (सल्लेखना) की सिद्धि करता है।273 अब श्रमण दूसरे संघ में सल्लेखना के लिए जाते हैं तो वह रत्नत्रय की आराधना के लिए उत्साही है या नहीं, इसकी परीक्षा करके अथवा मिष्ठ आहारों में यह अभिलषित है या विरक्त, इसकी परीक्षा करके ही आचार्य उसे अनुज्ञा देने का निर्णय करते हैं। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषय का भी आचार्य शुभाशुभ निमित्तों से निर्णय कर लेते हैं। क्षपक के परिणामों की सरलता की पहिचान के लिए उसकी तीन बार सम्पूर्ण आलोचना सोपाय पूँठते हैं, यदि तीनों बार एक सी आलोचना कहता है तो सरल स्वभाव का मान लेते हैं। योग्य निर्यापक: जिस प्रकार निर्यापक, योग्य श्रमण को समाधि मरण देते हैं। उसी प्रकार श्रमण भी योग्य निर्यापक से ही समाधि मरण लेते हैं। जो समाधि मरण लेता है वह 500, 600, अथवा 700 अथवा इससे भी अधिक योजन तक विहार करके शास्त्रोक्त निर्यापक की खोज करता है। वह एक, दो, तीन वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक खेदयुक्त न होता हुआ जिनागम से निति निर्यापकाचार्य का अन्वेषण करता है। निर्यापकत्व की शोध करने के लिए विहार करने से क्षपक को आचारशास्त्र, जीत शास्त्र, और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। आत्मा की शुद्धि होती है, संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं। आर्जव, मार्दव, आदि धर्म प्रकट होते हैं।214 एक निर्यापक एक ही सल्लेखना लेने वाले श्रमण को एक
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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