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________________ समाधिमरण 249 काल में ग्रहण करता है। सल्लेखना प्राप्त हो रहे क्षपक को, 48 निर्यापक और कम से कम 4 निर्यापक सल्लेखना करा सकते हैं। कदाचित् चार मुनि भी न मिल सकें तो दो मुनि अवश्य ही होना चाहिए, क्योंकि एक निर्यापक का विधान आगम में नहीं है। बल्कि एक निर्यापक होता है तो निर्यापक के द्वारा आत्मा का भी त्याग होता है, क्षपक का भी त्याग होता है और प्रवचन ' का भी त्याग होता है, तथा दुःख उठाना होता है। क्षपक का असमाधिपूर्वक मरण होता है, धर्म में दूषण लगता है और दुर्गति होती है।275 ये निर्यापक, योग्यायोग्य आहार को जानने में कुशल, क्षपक के चित्त में समाधान करने वाले, प्रायश्चित्त ग्रन्थ के रहस्य को जानने वाले, आगमज्ञ स्व-पर का उपकार करने में तत्पर होते हैं। अड़तालीस मुनियों का कार्य भेद बतलाते हुए आचार्य शिवार्य बतलाते हैं। "चार मुनि क्षपक को उठाना, बिठाना, आदि सेवा का काम, संयम में बाधा न आये इस प्रकार से करते हैं। चार यति, क्षपक को धर्म श्रवण कराते हैं। चार मुनि, आचारांग के अनुकूल क्षपक को आहार देते हैं। चार मुनि, क्षपक के लिए आहार में पेय पदार्थों की व्यवस्था करते हैं। चार मुनि, निष्प्रमादी हुए आहार के वस्तुओं की देखभाल करते हैं। चार मुनि, क्षपक के मल-मूत्रादि विसर्जन, वसतिका, उपकरण, संस्तर आदि को स्वच्छ रखते हैं। चार मुनि, क्षपक की वसतिका के दरवाजे पर प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं। अर्थात् असंयत आदि अयोग्य जनों को अन्दर आने से रोकते हैं। चार मुनि, उपदेश मंडप के द्वार के रक्षण का भार लेते हैं। निद्रा विजयी चार मुनि क्षपक के पास रात्रि में जागरण करते हैं। चार मुनि, जहाँ संघ ठहरा है उसके आस-पास के शुभाशुभ वातावरण का निरीक्षण करते हैं। चार मुनि, आये हुए दर्शनार्थियों को सभा में उपदेश देते हैं। चार मुनि, धर्म-कथा कहने वाले मुनि की सभा में रक्षा का भार लेते हैं।276 यदि कोई क्षपक समाधिमरण कर रहा है तो अन्य श्रमण भक्ति सहित उसकी सल्लेखना देखने आते हैं। एवं उससे प्रेरणा लेते हैं। जो यति तीव्र भक्तिराग से सल्लेखना के स्थान पर जाते हैं, वे देवगति का सुख भोगकर उत्तम स्थान मोक्ष को प्राप्त करते हैं। तथा समाधि का साधन कोई मुनि करता है, ऐसा सुनकर भी जो तीव्र भक्ति से युक्त होकर यदि नहीं जाता तो उसकी समाधि मरण में क्या भक्ति हो सकती है? और जिसकी
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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