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________________ समाधिमरण 247 विराधना करने से विराधक को दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। परन्तु दीक्षा, शिक्षा आदि में विराधना हो गयी हो, तो भी मरण काल में रत्नत्रय रूप परिणति करना चाहिए। तथापि इतने कालों में की गयी आराधना भी विफल नहीं होती, उससे कम का संवर व निर्जरा होती है। 271 सल्लेखना मरण के दो भेद होते हैं-(1) सविचार भक्त प्रत्याख्यान (2) अविचार भक्त प्रत्याख्यान। जो श्रमण उत्साह व बलयुक्त हैं, जिनका कुछ काल के अनन्तर मरण होगा, उनके सविचार मरण होता है। इसके विपरीत अकस्मात् मरण के आ जाने पर पराक्रम रहित साधु का मरण अविचार भक्त प्रत्याख्यान है। "उत्कृष्ट भक्त प्रत्याख्यान मरण की इच्छा रखने वाले मुनि ज्योतिष शास्त्र अथवा निमित्त शास्त्रों से या अन्य किसी भी उपायों से अपनी आयु का निर्णय कर लेते हैं, कि हमारी आयु बारह वर्ष प्रमाण रह गयी है; अथवा इससे कम रह गयी है, क्योंकि बारह वर्ष से अधिक आयु रहने पर सल्लेखना के नियम नहीं रह सकते हैं।212 ये श्रमण बारह वर्षों में से प्रारम्भ के चार वर्ष तो विविध रूप से अनशन, अवमौदर्य, सर्वतोभद्र आदि तपों का-अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण करते हैं। तथा आगे के चार वर्ष रसपरित्याग नामक तप से. पूर्ण करते हैं। पुनः दो वर्ष तक कभी अल्प आहार कभी नीरस आहार करते हुए व्यतीत करते हैं। पश्चात् एक वर्ष तक अल्प आहार लेते हुए पूर्ण करते हैं। आगे के छह महीने तक उत्कृष्ट तप करते हुए बारह वर्ष पूर्ण करते हुए शरीर त्यागते सल्लेखना करने वाले यदि आचार्य हों तो वे जब तक आयु का अन्त निकट न आवे, तब तक अपने गण के हित की चिन्ता करते हैं। अपनी आयु अभी कितनी रही है, इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदाय को और अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय, शुभ प्रदेश में, अपने गुण के समान जिसके गुण हैं, ऐसा वह बालाचार्य गच्छ का पालन करने के लिए योग्य है- ऐसा विचार कर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं, और उस समय उसे थोड़ा-सा उपदेश भी देते हैं। तथा स्वयं अलग होकर बाल वृद्ध आदि मुनियों से पूर्ण ऐसे गण से मन-वचन-काय से वह आचार्य क्षमा मांगते हैं। हे मुनिगण! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सम्पर्क रहा। मैंने ममत्व से, स्नेह से, द्वेष से, आपको कटु और कठोर वचन कहे होंगे। इसलिए आप सब मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है। वह क्षपक अपने मस्तक पर दो हाथ रखकर सर्व संघ को नमस्कार करते हैं और साधर्मिकों में अनुराग उत्पन्न करते हुए क्षमा ग्रहण करते हैं। मन-वचन और काय के द्वारा जो-जो अपराध मैंने किये हैं, उनके लिये आप लोग मुझे क्षमा करो।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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