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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा पूर्वक सामायिक स्थित भ्रमण का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि मेरा "सभी जीवों में समताभाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है, " सम्पूर्ण आशाओं को त्यागता हुआ कहता है कि, सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझें क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है । एवं वह श्रमण मात्र वैर का ही त्याग नहीं करता है। अपितु वैर के निमित्त राग का अनुबन्ध, प्रकृष्ट द्रेप, हर्ष, दीन भाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति, और अरति का भी त्याग करता है। 268 इस प्रकार ममत्व को छोड़ता हुआ निर्ममत्व को प्राप्त उस श्रमण के लिए आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र में स्थिति का नाम ही प्रत्याख्यान है। 246 इस प्रकार का प्रत्याख्यान आचरते हुए सम्पूर्ण प्रमादों को छोड़ने के अभिप्राय से सात भय, आठ मद, चार संज्ञा, तीन गौरव, तैतींस आसादना तथा राग-द्वेष की गर्हा करता है। आत्म-संस्कार काल से सन्यास काल तक की आलोचना के लिए वह निन्दा करने योग्य की निन्दा करता है, गर्हा करने योग्य दोष की गर्हा करता है, तथा बाह्य - आभ्यन्तर परिग्रह सहित सम्पूर्ण उपधि की आलोचना करता है; और यह आलोचना बालक जैसी होती है, अर्थात् जैसे बालक पूर्वापर विवेक से रहित होकर बोलता है, अपने प्रयोजनभूत अर्थात् उचित कार्य को तथा अप्रयोजनभूत अर्थात् अनुचित कार्य को सरल भाव से कह देता है, उसी प्रकार से अपने कुछ दोषों को छिपाने रूप माया और असत्य वचन को छोड़कर आलोचना करता है । और यह आलोचना, ज्ञान दर्शन - तप और चारित्र इन चारों में भी अविचल है, धीर हैं, आगम में निपुण हैं। और गुप्त दोषों को प्रकट करने वाले नहीं हैं ऐसे आचार्य के समक्ष करनी चाहिए। योग्य आचार्य के समक्ष अपनी आलोचना करके पुनः क्षमा याचना करते हुए कहता है कि जो मैंने राग से अपने द्वेष से न करने योग्य कार्य किया है, प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी कहा है उन सब से मैं क्षमा याचना करता हूँ ।" अथानन्तर वह सन्यास विधि में उद्यत होता है। सन्यास विधि में उद्यत होने का निर्देश बतलाते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि "महाप्रयत्न से चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर होने पर, श्रामण्य की हानि करने वाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर अथवा निः प्रतिकार देव, मनुष्य व तिर्यंच कृत उपसर्ग आ पड़ने पर, भयंकर दुष्काल आ पड़ने पर, हिंसक पशुओं से पूर्ण भयानक वन में दिशा भूल जाने पर, आँख, कान व जंघा बल अत्यन्त क्षीण हो जाने पर ( इससे यह फलित होता है कि भ्रमण चश्मा व डोली का उपयोग नहीं कर सकते हैं) भक्त प्रत्याख्यान के योग्य समझ जाते हैं।269 परन्तु पूर्व में कहे गये सर्व कारण उपस्थित न होने पर भी मुनि मरण की इच्छा करेगा, तो वह मुनि चारित्र से विरक्त ही समझना चाहिए। 270 इस सल्लेखना की भावना व अभ्यास जीवन पर्यन्त करना चाहिए क्योंकि अनभ्यास वश अन्त समय सल्लेखना धरना अत्यन्त कठिन होता है। मरण समय में रत्नत्रय की
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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