________________
समाधिमरण
245
दशा सम्भव होने से इसे पण्डित मरण कहते हैं। शरीर के प्रति जो स्वभाव से ही उपेक्षित है, ऐसे श्रावक व साधु को ऐसे अवसरों पर अथवा आयु पूर्ण होने पर ही इस प्रकार की वीरता का त्याग योग्य है। इसे आत्महत्या कंहना न्यायोचित नहीं है। राग-द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघात का दोष लगता है परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक नहीं है। अतः इसे आत्मघात का दोष प्राप्त नहीं होता है।263 रागादिक का होना ही हिंसा है।264
मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। जैसे, नाना प्रकार की विक्रय वस्तु के देने, लेने और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने धन का नाश होना इष्ट नहीं है। फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण उपस्थिति हों, तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो, जिससे विक्रय वस्तु का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है। इसी प्रकार व्रत और शील में जुटा हुआ व्यक्ति इनके आधारभूत आयु का पतन नहीं चाहता। यदि कदाचित् उनके विनाश के कारण उपस्थित हो जाएं, तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े, इस प्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हो तो जिससे अपने गुणों का घात न हो इस प्रकार का प्रयत्न करता है। अतः इसे आत्मघात नहीं कह सकते।265 सल्लेखनागत साधु को क्षपक कहते हैं। पीड़ाओं के प्राप्ति की सम्भावना हेतु इस विधि में निर्यापकों, परिचारकों, वैयावृत्ति, उपदेश आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। इन सब का सम्पूर्ण विवेचन क्रमशः प्रस्तुत है। .
भली-भाँति काय और कपाय का लेखन अर्थात् कृश करना सल्लेखना है, अर्थात् बाह्य शरीर का, और भीतरी कषायों को, कृश करना सल्लेखना कही गयी है। उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है।260 यह सल्लेखना दो प्रकार की होती है। "आत्म संस्कार के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कपाय रहित अनन्त ज्ञानादि गुण लक्षण परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों को कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखना के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण करना सल्लेखना
काल है।267
__ शरीर त्याग के लिए प्रवेश करने से पूर्व में प्रतिज्ञा स्वरूप यह संकल्प लिया जाता है कि "निर्विकल्प सामायिक को स्वीकार करते हुए अपने सम्पूर्ण अतीत, अनागत एवं वर्तमान के दुश्चरितों को मन-वचन-काय से त्याग करता हूँ।" एवं च बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह को, शरीर आदि को और भोजन, सभी को मन-वचन-काय पूर्वक तीन प्रकार से त्यागता हूँ। इस प्रकार वहिरंग समस्त हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप एवं पापों के विषयों का त्याग