SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार चर्या 217 क्रम से विशुद्ध और प्रमाण सहित विधि पूर्वक दिया जाता है।180 प्रमाण का अभिप्राय यहाँ पर भोजन के प्रमाण से है। दिगम्बर परम्परा में श्रमण का अधिकतम आहार का प्रमाण 32 ग्रास माना गया है। जो कि श्वेताम्बर परम्परा में भी मान्य है। देखें : "कुक्कुडि अंडयमेत्ता कवला बत्तीस भोयण प्रमाणे। राएणा सायंतो संगारं करई स चरित्तं181 ।। अर्थात् कुकडी पक्षी (मुर्गी) के अण्डे के बराबर प्रमाण वाले 32 ग्रास (कौर) श्रमण के भोजन का प्रमाण है। प्रमाण से अधिक भोजन करने से प्रचुर ईंधन वाले वन में उत्पन्न हुयी दावाग्नि की तरह इन्द्रियाँ शान्त नहीं होती है।182 और यदि इससे कम भोजन करे तो गुण होता है। दोनों मुख्य सम्प्रदायों के मूलगुणों में "एक भक्त" अर्थात् एक बार भोजन करने का विधान है। दिगम्बर आम्नाय में अद्यावधि अखंड रूप से प्रत्येक स्थिति में इसे स्वीकृत किये रखा है। परन्तु श्वेताम्बर आम्नाय इस गुण को नहीं निभा सकी, तभी तो श्वेताम्बर के अति आदरणीय ग्रन्थ कल्पसूत्र की टीका में इस प्रकार का शिथिल स्वरूप देखने को मिलता है कि "साधुओं ने हमेशा एक-एक बार आहार कर वो कल्पे पण आचार्य आदिक तथा वैयाबच्छ करनारने वे बार पण आहार लेवो कल्पे। अर्थात् एक बार भोजन-जो ते वैयावच्छ आदिक न करी शके तो ते वे बार पण आहार करे। केम के तपस्यां करतां पण वैयावच्छ उत्कृष्ण छ।"183 अर्थात् साधुओं को सदा एक बार आहार करना योग्य है, किन्तु आचार्य आदिक तथा दूसरे किसी रोगी साधु की वैयावृत्य (सेवा) करने वाले को दो बार भी दिन में आहार करना योग्य है। तात्पर्य यह है कि एक बार भोजन करने से जो वैयावत्य आदिक न कर सके तो वह दो बार आहार करे। कारण कि तपस्या करने से भी बढ़कर वैयावृत्य है। उपर्युक्त कथन पूर्वापर विरुद्ध है क्योंकि साधुओं को उनके छोटे अपराधों को प्रायश्चित देने वाले आचार्य स्वयं दो बार भोजन करें और अन्य मुनियों को एक बार ही भोजन मिले यह न्यायसंगत नहीं है। तथा किसी श्रमण की सेवा करने वाला साधु इस कारण एक बार भोजन करने के नियम को तोड़कर दिन में दो बार आहार करे कि तप करने से वैयावृत्य उत्कृप्ट है। इस तरह तो श्रमणों को तपस्या त्याग कर वैयावृत्य ही करना चाहिए, क्योंकि भोजन भी दो बार एवं फल भी तपस्या से दुगुना। इस तरह तो शिथिलाचार ही प्रोत्साहित होगा। इसी सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ में आगे लिखा है कि
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy