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________________ 216 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा निर्दोषां मौनमास्थितः ( 4/96 ) अर्थात् साधु भिक्षा के लिए दूसरे के घर पर ही (श्रावकों के) जाकर निर्दोष आहार को मौनपूर्वक ग्रहण करे। श्वेताम्बर परम्परा में यद्यपि निन्दित कुल, अप्रीतिकर कुल तथा गृह स्वामी द्वारा निषिद्ध घर में भिक्षार्थ प्रवेश का निषेध है।170 जुगुप्सनीय कुल से भिक्षा ग्रहण करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी माना है।।। जैसे, राजा अन्तः पुर और आरक्षिकों आदि के उस स्थान का मुनि दूर से ही वर्जन करे, जहाँ जाने से उन्हें संक्लेश उत्पन्न हो।172 आहार शुद्धि जैन श्रमण की निर्दोष आहार विधि निर्दोष श्रामण्य की शोभा है। उसके व्रत, शील, गुण आदि श्रमणधर्म के सभी आधारभूत गुणों की प्रतिष्ठा भिक्षाचर्या की विशुद्धता पर ही निर्भर है।173 जो वचन शुद्धि एवं मनशुद्धि पूर्वक भिक्षाचर्या करता है उसे जिनशासन में सुस्थित साधु कहा है।174 ऐसे साधु दूसरे के घर में, नवकोटि आदि से विशुद्ध आहार, अपने पाणिपात्र में, श्रावक आदि दूसरे के द्वारा दिया हुआ ग्रहण करते हैं।175 नवकोटि अर्थात् मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से परिशुद्ध आहार1176 श्वेताम्बरों के स्थानांग सूत्र में नव कोटियों का उल्लेख इस प्रकार दिया है। आहार के लिए श्रमण स्वयं जीव वध न करे, न दूसरों से करवाए न करने वाले की अनुमोदना ही करे। न मोल ले, न लिवाए, और न ही लेने वालों की अनुमोदना ही करे, एवं भोजन न पकाए न पकवाए और न ही पकाने वालों की अनुमोदना ही करे।177 जैन श्रमण की भिक्षा शद्धि के सन्दर्भ में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आम्नायों में भी कहींकहीं तो काफी समानता है। परन्तु कहीं-कहीं श्वेताम्बरीय आगमों एवं श्वेताम्बर आचार्यों में श्रमण की भिक्षा पर पर्याप्त शिथिलता एवं भ्रष्टता परिलक्षित होती है। यहाँ दोनों सम्प्रदायों की आहार शुद्धि पर क्रमशः विचार करते हैं। दिगम्बर आम्नाय में आहार की शुद्धता के सम्बन्ध में कहा कि "विशुद्ध आहार, शंकित, मृक्षित आदि दस दोष से रहित नख, रोम, जन्तु अर्थात् प्राणरहित शरीर, हड्डी, कण अर्थात् जौ आदि का बाह्य अवयव, शाल्य आदि के आभ्यन्तर भाग का सूक्ष्म अवयव, पीव, चर्म, रुधिर, माँस, बीज, फल, कंद और मूल चौदहों मलों से रहित होना चाहिए।178 आहार ग्रहण के समय इनके निकल आने पर तत्काल सर्व आहार के त्यागपूर्वक प्रायश्चित किया जाता है।179 तथा रुधिर पीव एवं कहीं पर भी माँस दिख भी जाए तो आहार छोडना होता है। आचार्य वट्टकेर ने बतलाया कि मुनि के ज्ञान, संयम, और ध्यान की सिद्धि तथा यात्रा साधन मात्र के लिए नवकोटि से शुद्ध भोजन, जो कि 46 दोपों से रहित, संयोजना से हीन, अंगार और धूम दोप से रहित छह कारणों से सहित,
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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