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________________ 218 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा "वली ज्यां सुधी दाढी मुंछना वालों न आव्या होय अर्थात् बालक एवां साधु-साधवियों ने वे बार पण आहार कर वो कल्पे। तेयां दोष नथी। माटे एवीरीते आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, ग्लान अने बालक साधु ने वे बार पण आहार करवो कल्पे।"184 अर्थात् - जब तक दाढ़ी मूछों के बाल न आये हों, अर्थात् साधु- साध्वी को दो बार भी आहार करना योग्य है। उसमें दोष नहीं है। अतएव आचार्य, उपाध्याय,रोगी साधु और बालक साधु-साध्वी को दो बार भी आहार करना योग्य है। दो बार आहार ग्रहण विधान के अलावा श्वेताम्बर परम्परा आहार की शुद्धता को श्रमणोत्तम महावीर के साथ भी नहीं निभा सकी। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर भी "कभी वासी अन्न मिल जाता तो खा लेते, और वह भी दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन में एक बार। वे अपने आहार के लिए न स्वयं पाप करते न दूसरों से कराते, और न ही करने वालों की अनुमोदना ही करते।185 यहाँ पर महावीर ने "बासी" भोजन सम्बन्धी उल्लेख से स्पष्ट है कि, श्वेताम्बर समुदाय ने आहार चर्या में भी पर्याप्त सुविधायें प्रदान करने की कोशिश की, जिससे इस सम्प्रदाय में शिथिलाचार को प्रोत्साहन मिला। "बासी" भोजन "चलित" अर्थात् अभक्ष्य होने से श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है। श्वेताम्बर परम्परा में इस प्रकार के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं एवं इनके मान्य आगम ग्रन्थों में भी आहार की अशुद्धता के पर्याप्त उद्धरण प्राप्त है। श्वेताम्बर श्रमण की आहारगत शिथिलता का प्रधान कारण उनके द्वारा कथित महावीर के भी मांसाहार का भक्षण है यह एक अकाट्य नियम है कि जिसका आदर्श ही पथ- भ्रष्ट हो मांस भक्षी हो, चाहे वह किन्हीं भी परिस्थितियों में किया गया हो, तो उसके अनुयायियों द्वारा इस प्रकार की प्रवृत्ति न होना एक असम्भव आश्चर्य ही होगा। श्वेताम्बर आगमों ने ही जब महावीर को परिस्थिति वश मांसाहारी बतलाया तो आगमों में किसी न किसी प्रकार से माँसाहार का विवेचन भी हुआ एवं उनके परवर्ती टीकाकारों, व्याख्याकारों ने उनका समर्थन ही किया। वर्तमान कालिक कुछ विद्वान उनका वनस्पतिपरक अर्थ करें या अन्य स्प से उन कथनों का प्रतिवाद करें, लेकिन उस सम्प्रदाय की पूर्व की उन मान्यताओं को तो किसी भी प्रकार से आवृत नहीं किया जा सकता है। दिगम्बर सम्प्रदाय में महावीर को सर्वथा मांस - मधु आदि से दूर कहा। इसी कारण से दिगम्बरों द्वारा मान्य किसी भी ग्रन्थ में किसी भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मांसाहार स्थान न प्राप्त कर सका। इस प्रसंग में श्वेताम्बरों के मान्य आगमों के परिप्रेक्ष्य में एवं विभिन्न विद्वानों, टीकाकारों के द्वारा-मांसाहार सम्बन्धी-पक्ष-विपक्षों पर अनुशीलन योग्य है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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