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________________ षडावश्यक / कायोत्सर्ग उपसर्ग आदि को जीतता हुआ, अन्तर्मुहुर्त या एक दिन, मास व वर्ष पर्यन्त निश्चल खड़े रहना कायोत्सर्ग है। 94 ऐसा कायोत्सर्ग खडे होकर, बैठकर या लेटकर भी मौनपूर्वक भी किया जा सकता है। समाधिमरण के समय यावज्जीवन के लिए किया जाने वाला कायोत्सर्ग लेटकर ही किया जा सकता है। 1 195 आचार्य वट्टकेर ने कायोत्सर्ग का स्वरूप व विधि बतलाते हुए कहा कि, दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त काल प्रमाण पर्यन्त उत्तम क्षमा आदि निज गुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है। 95 आ. अकलंक देव ने भी यही कहा है कि "परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । "96 कुन्दकुन्द ने इसको बहुत मार्मिक ढंग कहा कि "काय आदि पर- द्रव्यों में स्थिर भाव छोडकर जो आत्मा को निर्विकल्प रूप से ध्याता है उसे कायोत्सर्ग है। 97 आ. कायोत्सर्ग आवश्यक रूप तप को विस्तार से समझाते हुए कार्तिकेय स्वामी कहते हैं कि "जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल्ल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो, और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं रखता हो, तथा अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो, और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है। 98 कायोत्सर्ग का प्रयोजन : इस कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल बतलाते हुए आचार्य वट्टकेर ने कहा कि "ईर्यापथ के अतिचार को शोधने के लिए, मोक्षमार्ग में स्थित, शरीर में ममत्व को छोडने वाले मुनि, दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं । कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगो - उपांगों की संधियां भिद जाती हैं उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूल भी अलग हो जाती है। 99 परन्तु यह कायोत्सर्ग बल और आत्म शक्ति का आश्रय करके, क्षेत्र-काल और संहनन इनके बल की अपेक्षा करके कायोत्सर्ग के कहे जाने वाले दोषों का परित्याग करते हुए करना चाहिए। मायाचारी से रहित, अपनी शक्ति के अनुसार, बाल आदि अवस्था के अनुकूल, धीर पुरुष दुःख के क्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्था वाले समर्थ साधु सत्तर वर्ष वाले अशक्त वृद्ध के साथ कायोत्सर्ग की पूर्णता करके समान रहता है, वृद्ध की बराबरी करता है, वह साधु शान्त रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चारित्र रहित एवं जड़ है। 00
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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